ब्रिटिश भारत में शिक्षा - प्राचीन भारत में भारतीयों ने सभ्यता के विविध क्षेत्रों में विकास के जो जीवन्त प्रतिमान स्थापित किए थे, उसका आधार उनकी शैक्षिक प्रगति थी। किन्तु मध्ययुग में इस्लाम धर्मानुयायियों के हाथों में भारत की राजनैतिक सत्ता के आ जाने से भारत की प्राचीन शैक्षिक और बौद्धिक प्रगति में विराम लग गए।आधुनिक युग में भारत में यूरोपीय जातियों के आगमन से आधुनिक शिक्षा का प्रचार हुआ। अंग्रेजों के भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने से आधुनिक शिक्षा और अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार आरम्भ हुआ।
ब्रिटिश भारत में शिक्षा
1698 ई. में ब्रिटेन की सरकार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को अपनी छावनी में पादरी रखने और विद्यालय चलाने की आज्ञा प्रदान की। फलतः बम्बई, मद्रास और कलकत्ता में अनेक विद्यालय खोले गए। कम्पनी के हाथों में राजनैतिक सत्ता आने के बाद कम्पनी ने ईसाई मिशनरियों को सहायता देने के साथ अपनी शिक्षण संस्थाओं की भी स्थापना की। शिक्षा प्रसार में प्रमुख भूमिका निभाने वालों में बंगाल के सीरामपुर के तीन ईसाई मिशनरी- कैरे, वार्ड और मार्शमैन के नाम विशेष उल्लेखनीय है। ये तीनों 'पादरी सीरामपुर त्रिमूर्ति (Serampore Trio)' के नाम से प्रसिद्ध थे।
ईसाई मिशनरियों ने यहाँ अपने धर्म प्रचार के उद्देश्य से अनेक अंग्रेजी पाठशालाएँ स्थापित की जिनमें आधुनिक भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। इन मिशनरियों ने बालिका शिक्षा हेतु पृथक बालिका विद्यालय भी खोले। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बैथून द्वारा खोले गये बैथून विद्यालयों की श्रृंखला इस कड़ी में महत्त्वपूर्ण थी। सन् 1781 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स द्वारा कलकत्ता में एक मदरसा स्थापित किया गया जो कम्पनी सरकार द्वारा स्थापित पहला विद्यालय था।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय शिक्षा और साहित्य में पाश्चात्य विद्वानों ने भी रुचि लेनी प्रारंभ की। जोन्स ने 'मनुस्मृति' का और विल्किन्स ने 'भगवद्गीता' का अंग्रेजी में अनुवाद किया। मैक्समूलर ने वेदों का प्रथम संस्करण अँग्रेजी में प्रकाशित कराया।
बनारस में कम्पनी के रेजीडेंट जोनाथन डंकन ने एक संस्कृत कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज का मुख्य ध्येय यूरोपीय न्यायाधीशों को सहायता करने के लिए योग्य हिन्दू न्यायाधीशों एवं शासकों को उत्पन्न करना था। 1784 ई. में सर विलियम जोन्स ने कलकत्ता में 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' की स्थापना की।
शिक्षा के प्रचार-प्रसार में भारतीयों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जिनमें राजा राममोहन राय, राजा राधाकान्त देव और जननारायण घोषाल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। राजा राममोहन राय के प्रयत्न के फलस्वरूप कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई जो कालान्तर में 'प्रेसीडेन्सी कॉलेज' के नाम से विख्यात हुआ। उस समय अँग्रेजों ने महसूस किया कि उनके निर्देशों को समझने, उन्हें क्रियान्वित करने तथा उनके शासन को सुचारू रूप से चलाए जाने के लिए अँग्रेजी पढ़े लिखे भारतीयों की आवश्यकता है। अतः ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा के विकास की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया।
1.1813 ई. का चार्टर एक्ट:
सन् 1813 के चार्टर अधिनियम में प्रथम बार कम्पनी सरकार द्वारा भारतीय शिक्षा के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए शिक्षा के विकास के लिए प्रतिवर्ष एक लाख रुपए खर्च करने का प्रावधान किया गया। लेकिन यह धनराशि प्रतिवर्ष एकत्रित होती गई। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि कम्पनी के अधिकारी इस विषय पर एकमत नहीं थे कि भारत में अँग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाए। अधिकांश अँग्रेज इस समय भारतीय भाषाओं को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे। 'कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन' ने संस्कृत के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान दिया। परन्तु उस समय के कुछ प्रगतिशील भारतीय अंग्रेजी शिक्षा के पक्ष में थे।
19वीं शताब्दी के प्रारंभ में राजा राममोहन राय जैसे धर्म सुधारकों ने भारत में आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का में प्रबल समर्थन किया तथा पाश्चात्य विज्ञान एवं साहित्य की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दिये जाने की पुरजोर वकालत की। राजाराम मोहन राय प्रगतिशील आधुनिक शिक्षा के अग्रदूत थे। उन्होंने 1817 में कलकत्ता में डेविड हेयर के साथ मिलकर एक हिन्दू कॉलेज की स्थापना की जो पाश्चात्य प्रणाली पर शिक्षा प्रदान करने वाला प्रथम कॉलेज था।
1823 ई. तक कम्पनी सरकार ने कलकत्ता, मद्रास और बनारस में कई विद्यालय खोले जिनमें भारतीय भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया गया था। 1823 ई. में सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए 'सर्वसाधारण शिक्षा की आम समिति' की नियुक्ति हुई। इसका उद्देश्य शिक्षा का माध्यम निश्चित करना था। इस समय भारतीय शिक्षा के संबंध में दो विचारधाराएँ थी
आंग्लवादी अँग्रेजी शिक्षा का समर्थन करते थे एवं प्राच्यवादी प्राचीन भारतीय ग्रंथों के पक्षपाती थे। यह दोनों धारणाएँ लॉर्ड विलियम बैंटिंक के शासनकाल तक बनी रहीं।
गर्वनर जनरल लार्ड विलियम बैंटिंक स्वयं आंग्ल शिक्षा के समर्थक थे। 1833 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा भारतीयों की शिक्षा पर सरकार द्वारा व्यय की जाने वाली धनराशि दस लाख रुपए प्रतिवर्ष कर दी गई। लार्ड विलियम बैंटिंक ने भारतीय शिक्षा के माध्यम के प्रश्न को सुलझाने के लिए लार्ड मैकाले की सहायता प्राप्त की। भारत में अंग्रेजी शिक्षा का सूत्रपात करने का श्रेय लार्ड मैकाले को ही प्राप्त है।
2.लॉर्ड मैकाले की योजना:
लॉर्ड मैकाले भारत में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिए जाने का और पाश्चात्य शिक्षा के बड़े समर्थक थे। लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने मैकाले को सर्वसाधारण शिक्षा समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। फरवरी, 1835 ई. में लॉर्ड मैकाले की सिफारिशों को स्वीकार कर बैंटिंक ने अंग्रेजी को राजकीय भाषा बनाकर घोषणा की कि सरकार केवल अंग्रेजी शिक्षा को ही प्रोत्साहन देगी। अंग्रेजी सरकार की यह प्रथम घोषणा थी जिसमें भारतीय शिक्षा नीति को स्पष्टत: निर्धारित किया गया एवं शिक्षा के उद्देश्य, साधन एवं माध्यम को निश्चित रूप प्रदान किया गया। तब से मैकाले शिक्षा पद्धति के आधार पर भारतीय शिक्षा का विकास प्रारंभ हुआ। इस शिक्षा प्रद्धति का प्रमुख उद्देश्य भारत में पाश्चात्य शिक्षा, ज्ञान एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना एवं भारत में अंग्रेजी शासन के लिए पाश्चात्य सोच वाले वफादार क्लर्क उत्पन्न करना था।
पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से मैकाले भारत में एक ऐसे वर्ग को उत्पन्न करना चाहते थे जिनका रक्त तो भारतीय हो, परन्तु जो रुचि, रीति-रिवाज, सम्मति और बुद्धि में पूरी तरह अँग्रेज हो। लॉर्ड मैकाले की योजना के आधार पर 1835 ई. में ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा संबंधी नियम भी लागू कर दिए। जिसके द्वारा भारतीयों की शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी घोषित कर दिया। 1835 की शिक्षा नीति की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें 'अधोमुखी निष्पक्ष सिद्धान्त' के आधार पर शिक्षा देने का समर्थन दिया गया था। इस सिद्धान्त का अर्थ था- शिक्षा समाज के उच्च वर्ग को दी जाए और इस वर्ग से छन-छन कर शिक्षा का प्रभाव जनसाधारण तक पहुँचे। इसके परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार तेजी से होने लगा। 'कमेटी ऑफ इन्स्ट्रक्शन' के स्थान पर 'कौंसिल ऑफ एजुकेशन' की स्थापना की गई 11844 ई. में कम्पनी सरकार ने घोषणा कर दी कि सरकारी नौकरियाँ देते समय अँग्रेजी जानने वालों का विशेष रूप से ध्यान रखा जाएगा। इससे अंग्रेजी शिक्षा को बड़ा प्रोत्साहन मिला।
1843-54 ई. में उत्तरप्रदेश में स्कूलों की आर्थिक सहायता देने हेतु थॉमसन योजना चलाई गई। 1835 ई. बैटिंक ने कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज की और रुड़की में थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की। 1834 ई. में बम्बई में एल्फिस्टन कॉलेज की स्थापना की गई।
3.वुड्स डिस्पैच:
सन् 1854 में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के कार्यकाल में कम्पनी के बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के अध्यक्ष चार्ल्स वुड की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने भारत के संबंध में अपनी नवीन शिक्षा नीति की घोषणा की जो 'वुड्स का घोषणा पत्र' (Woods Despatch) के नाम से प्रसिद्ध है। इसे 'आधुनिक भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा' कहा गया। इस घोषणा पत्र में लंदन विश्वविद्यालय की तर्ज पर कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात कही गई तथा प्राथमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा का व्यवस्थित प्रारूप निर्धारित कर क्रमबद्ध पाठशालाओं (Graded Schools) की स्थापना का प्रावधान किया गया। प्रान्तों में लोक शिक्षा विभागों की स्थापना, महिला शिक्षा को प्रोत्साहन, उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी एवं स्कूली शिक्षा का माध्यम आधुनिक भारतीय भाषायें करना आदि वुड्स डिस्पेच के अन्य प्रमुख प्रावधान थे। इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में 1857 में तीनों प्रेसीडेन्सियों कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास में विश्वविद्यालयों की एवं प्रान्तों में लोक शिक्षा विभागों को स्थापना की गई।
1882 में लाहौर में पंजाब विश्वविद्यालय तथा 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय खोला गया। भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी भाषा को विशेष प्रोत्साहन दिया गया।
4.हन्टर कर्मशनः
बुड्स डिसेंच के प्रावधानों के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करने एवं प्राथमिक शिक्षा के विस्तार हेतु सुझाव देने के लिए 1882 ई. में गवर्नर जनरल एवं वॉयसराय लॉर्ड रिपन द्वारा डब्ल्यू इंटर की अध्यक्षता में इंटर शिक्षा आयोग का गठन किया गया। आयोग ने हाई स्कूलों में साहित्यिक एवं व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने, शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों को प्रोत्साहित करने व उच्च शिक्षा संस्थाओं के प्रबन्ध से सरकार को अलग रहने आदि सुझाव दिये तथा महिला शिक्षा सुविधाओं के विस्तार पर बल दिया। इसके पश्चात् भारत में शिक्षा के क्षेत्र में निजी भारतीय शिक्षण संस्थाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण हो गया।
5.रैले कमीशन:
भारतीय शिक्षा के विकास के इतिहास में लार्ड कर्जन का शासनकाल (1899-1905) अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। कर्जन एक घोर साम्राज्यवादी था और भारतीय शिक्षा पद्धति पर वह पूर्ण सरकारी नियंत्रण रखना चाहता था। उसने शिक्षा विभाग
में केन्द्रीकरण की नीति का अनुसरण किया एवं शिक्षा व्यवस्था पर नियंत्रण तथा निरीक्षण स्थापित करने का प्रयत्न किया। जनवरी, 1902 ई. में लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालयों के संगठन तथा कार्य पर रिपोर्ट देने, शिक्षा-स्तर को उठाने तथा नियुक्त शिक्षा को उन्नत बनाने के लिये सिफारिशें करने के लिए रैले की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की।
रैले कमीशन की सिफारिशों का मुख्य उद्देश्य शिक्षा पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण कायम करना था। अतः भारतीयों ने इसका विरोध किया। लेकिन लार्ड कर्जन ने इस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और उन सिफारिशों के आधार पर 1904 ई. में 'विश्वविद्यालय अधिनियम' पास करवाया। इस एक्ट ने विश्वविद्यालयों की प्रबन्धक संस्थाओं का पुनर्निर्माण किया। विश्वविद्यालय के सिनेट में कम-से-कम 50 और अधिक से अधिक 100 सदस्य हो सकते थे। कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास विश्वविद्यालयों के लिए निर्वाचित सदस्यों की संख्या 20 और शेष दो विश्वविद्यालयों के लिए 15 रखी गई। सिंडीकेटों को कानूनी मान्यता दे दी गई और उसमें अध्यापकों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया। कॉलेजों पर सरकारी नियन्त्रण रखने का निश्चय किया गया तथा कॉलेजों को किसी विश्वविद्यालयों से संबंधित करने या न करने का अंतिम निर्णय भी भारत सरकार के हाथ में था। अभी तक विश्वविद्यालय परीक्षा लेने वाली संस्थाएँ ही थीं। इस कानून द्वारा उन्हें शिक्षण कार्य के योग्य बनाने की व्यवस्था की गई।
इस एक्ट ने विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को समाप्त ही. कर दिया। अतः भारतीयों ने इसका बड़ा विरोध किया। लेकिन कर्जन ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया एवं अपनी उच्च शिक्षा संबंधी नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। प्रारम्भिक शिक्षा क्षेत्र में उसने कुछ उल्लेखनीय सुधार किया। उसने प्रारंभिक शिक्षा के विकास के लिए दो लाख तीस हजार हजार पौंड वार्षिक धन-राशि स्थाई रूप से स्वीकृत की तथा अध्यापकों के वेतन वृद्धि का आदेश दिया। उसने कृषि शिक्षा, औद्योगिक शिक्षा और सामान्य शिक्षा के विकास के लिये भी प्रयत्न किये। उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप जमशेदजी टाटा ने भारी धनराशि उदारतापूर्वक बंगलौर की विज्ञान संस्था की स्थापना में व्यय की।
1910 ई. में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई। 1911 ई. में गर्वनर जनरल की कौंसिल में शिक्षा-सदस्य नियुक्त कर दिया गया और शिक्षा की उन्नति के लिये दस लाख रुपया स्वीकृत किया गया। 1913 ई. में एक सरकारी प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव के द्वारा ढाका, अलीगढ़ तथा बनारस में शिक्षा देने वाले विश्वविद्यालयों को स्थापित करने की व्यवस्था की गई। रंगून, पटना तथा नागपुर में कालेजों को संयोजित करने वाले विश्वविद्यालयों को स्थापित करने का निश्चय किया गया। यद्यपि प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ जाने के कारण 1913 ई. का प्रस्ताव कार्यान्वित न हो सका तथापि 1916 तथा 1917 ई. में बनारस तथा पटना विश्वविद्यालय आरम्भ कर दिये गये।
6.सैडलर कमीशनः
लार्ड चेम्सफोर्ड के समय में भारत सरकार ने कलकत्ता के विषय में जाँच करने के लिये एम. सैडलर की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन को माध्यमिक, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा संबंधी सभी समस्याओं पर जाँच करने का अधिकार दिया गया। 1919 ई. में इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी। 1920 ई. में भारत सरकार ने कमीशन की सिफारिशों को प्रान्तीय सरकार के पास भेज दिया। 1920 ई. में ढाका तथा लखनऊ विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। 1921 ई. में इलाहाबाद और 1922 ई. में दिल्ली विश्वविद्यालय आरम्भ किये गये।
इस समय के राष्ट्रीय जागरण ने शिक्षा के विकास को प्रभावित किया। देश में अनेक शिक्षण संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया। कलकत्ता के निकट बोलपुर में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 'शाँति निकेतन' की स्थापना की जो बाद में 'विश्वभारती विश्वविद्यालय' के नाम से विख्यात हुआ। 1917 से 1922 ई. तक के काल में विश्वविद्यालय की संख्या पाँच से बढ़कर चौदह तक पहुँच गई। अलीगढ़ एवं बनारस विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय आदि इसी समय स्थापित किये गये।
7.1919 ई. के अधिनियम में शिक्षाः
1919 के भारतीय अधिनियम में शिक्षा विभाग भारतीय मन्त्रियों को हस्तान्तरित कर दिया गया जो प्रान्तीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी थे। उच्च शिक्षा संबंधी सामान्य नीति का निर्धारण भारत सरकार के हाथ में रहा। 1919 ई. के बाद प्रान्तीय सरकारों ने शिक्षा सम्बन्धी नये नये नियम बनाये एवं म्युनिसिपल तथा जिला बोडों को अपने अपने क्षेत्रों में निःशुल्क तथा प्राइमरी शिक्षा की व्यवस्था का अधिकार दिया।
8.1935 ई. के अधिनियम में शिक्षा:
1935 ई. के एक्ट के द्वारा शिक्षा प्रान्तीय विषय बना दिया गया। परन्तु कुछ विश्वविद्यालय सीधे केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण में रखे गये। 1937 ई. में प्रान्तीय स्वायत्तता की योजना लागू की गई। आठ प्रान्तों में कांग्रेस के मंत्रिमंडल के शिक्षा प्रचार के लिये प्रशंसनीय कार्य किये। शिक्षा पर अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यय होने लगा। अनेक विश्वविद्यालय स्थापित किये गये।
9.बेसिक शिक्षा:
बेसिक शिक्षा के जन्मदाता महात्मा गाँधी हैं। 1937 ई. में उन्होंने 'हरिजन' में इस संबंध में एक पत्र लिखा था। बेसिक शिक्षा का प्रथम सिद्धान्त है- शिक्षा स्वावलम्बी हो। दूसरे शब्दों में, शिक्षा प्राप्त करना तथा द्रव्योपार्जन का कार्य साथ-साथ चलना चाहिये। इसके लिए बच्चों को दस्तकारी की शिक्षा दी जाने वाली थी। बेसिक शिक्षा का दूसरा सिद्धान्त यह था कि स्कूलों में बनाई हुई वस्तुओं के विक्रय के लिये सरकार बाजार की व्यवस्था करे। बेसिक शिक्षा को कार्यान्वित किया गया। आगे चलकर इस शिक्षा को चार कोटियों में विभक्त कर दिया गया अर्थात् पूर्व बेसिक शिक्षा, बेसिक शिक्षा, उत्तर. शिक्षा तथा वयस्क शिक्षा पूर्व बेसिक शिक्षा के अन्तर्गत 7 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा आती थी, बेसिक शिक्षा के अन्तर्गत 7 से 14 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा आती थी, उत्तर बेसिक शिक्षा के अन्तर्गत उन नवयुवकों की शिक्षा आती थी जिन्होंने बेसिक शिक्षा प्राप्त कर ली है एवं वयस्कशिक्षा के अन्तर्गत सभी अवस्था के स्त्री-पुरुषों की शिक्षा आ जाती थी।
10.शिक्षा के लिये सार्जेण्ट योजना (1944):
सर जान सार्जेण्ट भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार थे। केन्द्रीय सरकार द्वारा शिक्षा में सुधार हेतु आवश्यक सुझाव देने हेतु इनकी अध्यक्षता में एक 22 सदस्यीय समिति का गठन किया गया। समिति ने शिक्षा संबंधी एक योजना जनवरी, 1944 में प्रस्तुत की । यह 12 अध्यायों में विभक्त है।
इसकी प्रमुख सिफारिशें निम्न हैं
- छह वर्ष से चौदह वर्ष के बच्चों की शिक्षा निःशुल्क तथा अनिवार्य होनी चाहिए।
- प्राइमरी शिक्षा के पश्चात् 11-17 वर्ष के केवल उन्हीं बालक-बालिकाओं को हाई स्कूल की 6 वर्ष के लिए शिक्षा दी जाय जो इस शिक्षा से लाभान्वित हो सकें तथा इस शिक्षा के योग्य हों।
- इसी प्रकार कॉलेजों में भी विद्यार्थियों के प्रवेश पर पाबन्दियाँ लगा दी जायँ।
- कॉलेज की शिक्षा तीन वर्ष की की जाए एवं चुने हुए योग्य विद्यार्थियों को ही कॉलेज शिक्षा प्रदान की जाए।
- शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जाए।
- देश में एक राष्ट्रीय नवयुवक आंदोलन चलाया जाय जिसका उद्देश्य नवयुवकों को शरीर निर्माण तथा देश सेवा की शिक्षा देना हो ।
'सार्जेण्ट योजना' ब्रिटिश शासन काल की एक महत्त्वपूर्ण योजना थी जिसमें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला गया था। यह ब्रिटिश काल की पहली शिक्षा योजना थी जिसको पूरा करने के लिए निश्चित समय 40 वर्ष निर्धारित किया गया था।
11.राधा कृष्णन आयोगः
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने नवम्बर, 1949 में डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की। यह स्वतंत्र भारत में स्थापित किया गया पहला शैक्षणिक कमीशन था। सम्पूर्ण देश का भ्रमण करने, लोगों से भेंट करने, विभिन्न क्षेत्रों में स्मृति पत्र प्राप्त करने तथा उन पर विचार करने के पश्चात आयोग ने 25 अगस्त, 1949 ई. को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। यह प्रतिवेदन एक वृहत् दस्तावेज है जो 18 अध्यायों में विभक्त है। इसक प्रमुख सिफारिशें थीं-
- ग्रामीण विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाय।
- विश्वविद्यालयों में केवल योग्य एवं प्रतिभावान विद्यार्थियों का प्रवेश कराया जाय एवं शेष को औद्योगिक शिक्षा दी जाय।
- हिंदी का अध्ययन अनिवार्य बना दिया जाय।
- अध्यापकों को अच्छा वेतन दिया जाय।
- डिग्री कोर्स तीन वर्ष का होना चाहिए।
- प्राइमरी तथा कालेजों में सह-शिक्षा हो परन्तु माध्यमिक स्कूलों में नहीं।
- अध्यापकों के लिए ट्रेनिंग कालेजों का पुनसंगठन होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त अनेक सामाजिक संस्थाओं ने भी भारतीय शिक्षा विकास के लिए प्रशंसनीय कार्य किये हैं। आर्य समाज के प्रकाण्ड विद्वानों ने भारतीय संस्कृति के विकास एवं प्राचीन वैदिक शिक्षा पद्धति को पुनर्जीवित करने के लिए अथक परिश्रम किया है। अनेक स्थानों में गुरुकुलों की स्थापना की। गई जिनमें काँगड़ी, इन्द्रप्रस्थ और वृन्दावन के गुरुकुल बहुत अधिक प्रसिद्ध हैं। आर्यसमाजियों ने अंग्रेजी ढंग की शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की हैं जिनमें स्वामी दयानन्द के नाम पर अनेक डिग्री कालेज खोले गये हैं।
1921-22 ई. में महात्मा गाँधी की अभिप्रेरणा से शिक्षा को राष्ट्रीय आधार पर चलाने के लिये अनेक स्थानों पर राष्ट्रीय विद्यापीठ खोले, जिनमें से प्रमुख गुजरात, काशी विद्यापीठ तथा जामियामिलिया (1930) दिल्ली में मुख्य है। इस काल में प्रौढ़ शिक्षा पर जोर दिया गया तथा इसके प्रसार के लिये कदम उठाये गये।
12.स्त्री शिक्षा:
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत सांस्कृतिक पुनरुत्थान एवं धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप स्त्री शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन मिला। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन सर्वप्रथम ईसाई धर्म प्रचारकों से मिला। स्त्री समाज की कुप्रथाओं व निरक्षरताओं को दूर करने के लिए ब्रह्म समाज, प्रार्थना, आर्य समाज तथा रामकृष्ण मिशन आदि संस्थाओं ने महान प्रयास किया है। राजा राममोहन राय एवं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयत्न के परिणामस्वरूप 1849 ई. में सर्वप्रथम बालिकाओं की शिक्षा के लिये पाठशालाएँ स्थापित
की गई। लार्ड डलहौजी ने भी बालिकाओं की शिक्षा के लिये अनुदान की व्यवस्था की। सर चार्ल्स वुड की योजना में भी स्त्री-शिक्षा पर ध्यान दिया गया। महिलाओं में शिक्षा प्रसार हेतू अनेक पत्रों का प्रकाशन किया गया। 1916 ई. में सर्वप्रथम बम्बई में महिला विश्वविद्यालय महर्षि डॉ. धोंडो केशव कार्वे द्वारा स्थापित की गई। इसका वर्तमान नाम SNDT महिला विश्वविद्यालय है।
13.वैज्ञानिक शिक्षा:
भारत की अँग्रेजी सरकार ने भारत में वैज्ञानिक शिक्षा की प्रगति के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। इस क्षेत्र में भारतीय अपने ही बल पर आगे बढ़े। 1876 ई. में कलकत्ता में महेन्द्र लाल सरकार ने 'इंडियन कौंसिल ऑफ साइंटिफिक स्टडीज' की स्थापना की। 1879 ई. में श्री जगदीश चन्द्र बोस ने जीव विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण खोज की। 1902 ई. में विज्ञान का अध्यापन आरम्भ हुआ। 1911 ई. में बंगलौर में 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साईंस' की स्थापना हुई। अनेक भारतीय वैज्ञानिकों ने विविध क्षेत्रों में अपने. मौलिक अनुसंधानों से संसार में ख्याति प्राप्त की। इस संबंध में श्रीनिवास रामानुजम, जगदीशचन्द्र बोस, श्री चन्द्रशेखर वेंकटरमन, श्री मेघनाद साहा, श्री बीरबल साहनी, सत्येन्द्र बोस तथा शान्ति स्वरूप भटनागर आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। 1930 ई. में भारत सरकार ने वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् की स्थापना की। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में भारत के शैक्षिक विकास को नए आयाम मिले। किन्तु इन सब प्रयासों के बावजूद साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम रहा। 1931-41 में साक्षरता मात्र 12 प्रतिशत थी।
14.अँग्रेजी शिक्षा का प्रसार एवं उसका प्रभावः
भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए मुख्यतः तीन एजेंसियाँ उत्तरदायी थीं-
- ईसाई मिशनरी
- ब्रिटिश सरका
- प्रगतिशील भारतीय
15.ईसाई मिशनरी:
आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में निजी उद्यम में मिशनरी अग्रणी थे। ईसाई मिशनरियों की मूल प्रेरणाथी भारतीय जनता में ईसाई धर्म का प्रचार करना। मिशनरी शिक्षा के क्षेत्र में 1813 के चार्टर अधिनियम ने एक नवीन अध्याय प्रारम्भ किया। इससे थोड़े ही समय में कम्पनी के अधिकृत प्रदेशों में मिशनरियों का जाल बिछ गया। अनेक नई संस्थाओं का जन्म हुआ, जिनमें प्रमुख थीं- जनरल बैपस्टिस्ट मिशन सोसायटी, लंदन मिशनरी सोसायटी, चर्च मिशनरी सोसायटी, वैसलियन मिशन और स्कॉट मिशनरी सोसायटी। 1833ई. से पूर्व मिशनरियों ने आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्ययन को महत्त्व प्रदान किया, शब्दकोश तैयार किए, व्याकरण पर पुस्तकें लिखी, बाइबिल का भरतीय भाषाओं में अनुवाद किया और भारतीय भाषाओं में प्रथम पाठ्य-पुस्तकों का संकलन किया। परन्तु 1833 के बाद मिशनरियों की नीति में परिवर्तन हुआ। अब वे अंग्रेजी माध्यम के माध्यमिक विद्यालयों और महाविद्यालयों पर बल देने लगे। इस दिशा में प्रमुख योगदान एलेक्जेंडर डफ का था, जिसने 1830 में कलकत्ता में एक अँग्रेजी विद्यालय स्थापित किया। मिशनरी क्रिया-कलाप सब स्थानों पर एक समान नहीं थे। मद्रास में उनका शिक्षा-प्रचार सर्वाधिक और जोरदार था।
16.प्रगतिशील भारतीय:
आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए उत्तरदायी प्रगतिशील भारतीयों में राजा राममोहन राय का नाम सर्वप्रमुख है। उन्होंने इस बात को समझा कि प्राच्य-पाश्चात्य संस्कृतियों का समन्वय भारत की प्रमुख आवश्यकता है। उन्होंने अंग्रेजी और पाश्चात्य विज्ञान और साहित्य के अध्ययन से प्राच्य संस्कृति में सुधार तथा उसके पुनरुद्धार का समर्थन में किया। राजा राजामोहन राय ने डेविड हेयर के साथ मिलकर 1817 में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। पाश्चात्य पद्धति पर उच्च शिक्षा देने का यह प्रथम कॉलेज था, जिसका धार्मिक शिक्षा से संबंध नहीं था। आधुनिक शिक्षा के लिए हेयर का योगदान धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त है।
कम्पनी के अनेक शिक्षण संस्थाओं को चालू किया। बेथून ने 1849 में भारतीय बालिकाओं के लिए एक विद्यालय स्थापित किया। बेथून के देहान्त के बाद लार्ड डलहौजी ने इसे अपने हाथ में ले लिया और 'बेथून महाविद्यालय' भारतीय महिलाओं की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया। उसके बाद विभिन्न गवर्नर जनरलों ने विभिन्न आयोगों के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार किया। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से और माध्यमिक तथा उच्चतर स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से दी जाती थी। सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था एक उद्देश्य की ओर निर्देशित थी- निर्धारित अंग्रेजी पुस्तकों के माध्यम से निर्धारित विषयों का अध्ययन करना जिससे उपाधि प्राप्त की जा सके। परीक्षा में सफलता को शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा भारतीय जीवन की वास्तविकताओं से अलग-थलग रही। इसके माध्यम से भारतीय उसकी राजनीतिक दासता और आर्थिक व सांस्कृतिक पिछड़ेपन का सच्चा चित्र प्रस्तुत नहीं कर पाए। इससे भारतीयों के राष्ट्रीय गर्व और आत्मसम्मान की भावनाओं को ठेस पहुँची। भारतीय शिक्षा का चरित्र वास्तव में औपनिवेशिक था, जिसकी प्रमुख विशिष्टता तकनीकी शिक्षा का अभाव था। शिक्षा अत्यधिक साहित्यिक और अव्यावसायिक रही साथ ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण वह जनसाधारण तक नहीं पहुँच पाई और शिक्षित व अशिक्षित जनसमुदाय के बीच भाषा और संस्कृति खाई का कारण बनी।
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