राजस्थान की हस्तकला एवं स्थापत्य कला - दोस्तों आज Rajgk आपके लिये Rajasthan GK in Hindi me राजस्थान की हस्तकला एवं स्थापत्य कला share कर रहे है, जो की General Knowledge (सामान्य ज्ञान) से सम्बंधित है. इस में राजस्थान की हस्तकला एवं स्थापत्य कला सामान्य ज्ञान आपको पढने को मिलेगा.
राजस्थान की हस्तकला एवं स्थापत्य कला
मानव के हाथों द्वारा कलात्मक वस्तुओं का निर्माण किया जाना व उन्हें आकर्षण रंगों से सजाना हस्त शिल्प या हस्तकला कहलाता है। राजस्थान को हस्तकलाओं का अजायबघर कहा जाता है। राजस्थान में हस्तकला का सबसे बड़ा केन्द्र 'बोरनाड़ा' (जोधपुर) है। राजस्थान में निर्मित हस्तशिल्प की वस्तुएँ केवल भारत देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्धि पा रही है। इसलिए राजस्थान को 'हस्तशिल्प कलाओं का खजाना' कहा जाता है।
जवाहरात का कार्य 'हस्तशिल्प की श्रेणी' में आता है, तो 'हैण्डलूम मार्क' शिल्पकला की प्रमाणिकता बताता है। राजस्थान की हस्तशिल्प वस्तुओं को राजस्थान लघु उद्योग निगम 'राजस्थली ब्रांड' से विपणन करता है, जो जयपुर में स्थित है। हस्तशिल्पियों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से उदयपुर से 13 किमी. दूर 'शिल्पग्राम' की स्थापना की गई।
राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान ने भौगोलिक सूचक पद में शिल्पकला में 'ब्ल्यू पॉटरी' (जयपुर) तथा 'चिकनी मिट्टी उद्योग' (उदयपुर) को स्थान दिया है। राजस्थान राज्य हथकरघा विकास निगम लिमिटेड की स्थापना 1984 में की गई। कला धरोहर का संरक्षण तथा राज्य के कलाकारों के प्रोत्साहन के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने जयपुर में अप्रैल, 1993 में जवाहर कला केन्द्र का उद्घाटन किया। जवाहर कला केन्द्र भवन के वास्तुकार चार्ल्स कोरिया था।
राजस्थान की हस्तकला एवं स्थापत्य कला |
राजस्थान में लाख़ उद्योग का प्रमुख केन्द्र जयपुर व उदयपुर है।'चन्दूजी का गढ़ा तथा बोडीगामा स्थान तीर कमान निर्माण के लिए विख्यात है। राजस्थान के सीकर जिले की भंवरी देवी को फड़ कथन कला के पुनः जीवनदाता के रूप में जाना जाता है। उस नवकरण का नाम पवनसार है, जिसमें छपाई को सरल करने के लिए छेद बनाए जाते हैं, ताकि उसमें से हवा गुजर सके और ब्लॉक बाधित न हो। शेखावाटी फर्निचर विशेषतः शीशम की लकड़ी का बना होता है।
राजस्थान की मूर्तिकला, चित्रकला, नृत्यकला तथा संगीतकला के अतिरिक्त कुछ विशिष्ट लोकलायें भी राजस्थान के जनजीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, जो निम्नलिखित हैं-
1.पथवारी-
गाँवों में पथ रक्षक के रूप में पूजा जाने वाला स्थल जिस पर चित्र बने होते हैं, उसे 'पथवारी' कहते हैं। धार्मिक यात्रा पर जाते समय तथा वहाँ से लौटकर आते समय पथवारी की पूजा होती है ।
2.पाना-
राजस्थान में कागज पर बने देवी-देवताओं के चित्रों को 'पाना' कहा जाता है, जिसे दीवार पर चिपका दिया जाता है। जैसे गणेशजी का पाना, लक्ष्मीजी का पाना आदि। श्रीनाथजी का पाना सबसे अधिक कलात्मक होता है जिसमें श्रीनाथजी के चौबीस शृंगारों का चित्रण किया जाता है।
3.फड़-
कपड़े पर लोक देवी-देवताओं के पौराणिक आख्यान चित्रित करना फड़ चित्रण कहलाता है। कपड़े पर किये गये चित्रांकन को 'फड़' कहते हैं। छीपा जाति जोशी, ज्योतिषी एवं चितेरों द्वारा इसका चित्रांकन किया जाता है। भीलवाड़ा जिले के शाहपुरा कस्बे में फड़ बनाई जाती हैं, जहाँ के श्रीलाल जोशी (इन्होंने मेघराज मुकुल की पुस्तक सेनानी पर फड़ बनाई है तथा इन्हें 2006 में पद्मश्री पुरस्कार भी दिया गया है) व पार्वती जोशी (राजस्थान की पहली महिला चितेरी) प्रसिद्ध फड़ चितेरे हैं। सामान्यतः इसका आकार 5 फुट चौड़ा एवं 24 फुट लम्बा होता है। पाबूजी की फड़ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। देवनारायणजी की फड़ सबसे पुरानी, सबसे लम्बी व सबसे छोटी है। फड़ के फट जाने या पुरानी हो जाने पर इसे पुष्कर झील में प्रवाहित करते हैं, जिसे फड़ को ठण्डा करना कहते हैं। ध्यान रहे-मारवाड़ के भोपा रामलाल व भोपन पताशी ने अमिताभ बच्चन की फड़ का वाचन अमेरिका में किया था।
4.रंगोली-
सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक मंगल अवसरों पर विभिन्न सूखे रंगों के द्वारा इस घर के बाहर, दरवाजे के पास, आंगन में तथा अन्य खुले स्थानों पर कई गोलाकार चित्र बनाये जाते हैं, जिसे रंगोली कहते हैं।
5.कावड़-
यह एक लकड़ी का बना हुआ चलमंदिर होता है, जिस पर कथाओं पर आधारित देवी-देवताओं के चित्र होते हैं । कावड़ मंदिर जैसी काष्ठ कलाकृति होती है। चित्तौड़गढ़ जिले के बस्सी कस्बे में कावड़ बनाई जाती हैं। कावड़ परम्परा में घुमंतू कलाकारों को कावड़िया भाट नाम दिया गया है। साथ ही कहानी कहने की मौखिक परम्परा जो अभी जिंदा है, जिसमें महाकाव्य महाभारत, रामायण, पुराण, जातिगत और लोक परम्परा से जुड़ी कहानियाँ कही जाती है, उसे कावड़ बांचना कहते हैं।
6.वील-
ग्रामीण अंचलों की महिलायें घर सजाने तथा दैनिक उपयोग की चीजों को सुरक्षित रखने के लिए मिट्टी के महलनुमा कलाकृतियाँ बनाती हैं। बोलचाल की भाषा में इन्हें 'वील' कहा जाता है। यह कला लुप्त होती जा रही है। एक साधारण वील बनाने में औसतन बीस से पच्चीस दिन लगते हैं परंतु वील शैली पर आधारित महल बनाने में दो माह से भी अधिक समय लगता है। वील बनाने के लिये बांस की पतली-पतली खपच्चियों को धागे से बांध कर किसी दीवार के सहारे ढांचा खड़ा किया जाता है।
7.मांडना-
राजस्थानी लोक अंलकरण का सबसे विकसित और प्रचलित रूप है मांडना। मांडना का अर्थ है चित्रित करना अथवा बनाना। वे समस्त आकृतियाँ जो दीवार अथवा जमीन पर खड़िया,गेरू, हिरमच, पेवड़ी, काजल एवं अन्य देशी रंगों के माध्यम से बनाई जाती है, 'मांडना' कहलाती हैं। राजस्थानी मांडना महाराष्ट्र की रंगोली और बंगाल के अल्पना से केवल आंचलिक रूप से ही भिन्न है। ये आकृतियाँ हाथ की अंगुलियों तथा कूंची से बनाई जाती है।
ध्यान रहे- बच्चे के जन्म के समय सात्या मांडना, देवी-देवताओं की पूजा पर पगलिये मांडना व होली पर चार दिशाओं वाला मांडना, मांडने की परम्परा है।
8.सांझी-
संइया, संझा या सांझी राजस्थान में गोबर से बनाई जाती है, यह पार्वती का ही एक रूप माना जाता है, जिसकी पूजा कुँवारी कन्याएँ व विवाहित महिलाएँ करती है।
ध्यान रहे- केले के पत्तों की सांझी नाथद्वारा (राजसमंद) की प्रसिद्ध है, तो सांझी निर्माण के लिए प्रसिद्ध मंदिर उदयपुर में स्थित मछन्दर मंदिर है, इसी कारण इसे झाँझीया मंदिर भी कहते हैं।
9.मेंहदी महावर-
मेहन्दी या महावर रचना एक ओर नारी के सौन्दर्य प्रसाधनों में गिना जाता है तो दूसरी ओर यह परम्परा से चली आ रही मांगलिक लोककला भी है। यहाँ इसे सुहाग का शुभ चिह्न माना जाता है। मेहन्दी रचना नारी के सोलह शृंगार का एक विशिष्ट अंग माना गया है। कन्याएँ तथा वधुएँ अनेक मांगलिक अवसरों (त्योहार, विवाह, रातीजगा, जडूले आदि) पर मेहंदी एवं महावर अनुरागपूर्वक रचाती हैं।
ध्यान रहे - राजस्थान में सबसे प्रसिद्ध मेहंदी सोजत (पाली) की है, तो हाथों पर सबसे प्रसिद्ध मेहंदी जयपुर में बनाई जाती है। राजस्थान की बिस्सा जाति की महिलाएँ अपने जीवन में कभी भी मेहंदी नहीं लगाती है।
10.थापा-
राजस्थान के अनेक अंचलों में शादी-विवाह के अवसर पर अबीर गुलाल उड़ाई जाती है और सगे सम्बन्धी (वर एवं वधू पक्ष के लोग) एक-दूसरे से होली खेलते हैं। आपस में वस्त्रों पर अनेक रंग डालते हैं और पीठ पर पूरे हाथ की छाप लगाते हैं। यह छाप थापा कहलाती है। होली, दीपावली, अक्षय तृतीया एवं गणगौर के त्योहार पर भी ये मांगलिक थापे दिये जाते हैं।
11.गोदना-
गोदना राजस्थानी लोक अंलकरण की एक विशिष्ट प्रथा है, जिसमें किसी चीज से शरीर की चमड़ी पर खुदाई करके उसमें रंग एवं तेल डाल दिया जाता है, जिससे वह स्थाई रूप से चित्रित हो जाता है। गोदना मात्र महिलाओं में ही प्रचलित नहीं, अपितु पुरुषों में भी इसका प्रचलन है। पिछड़ी और अशिक्षित जातियों के लोगों की गोदने के विषय में अनेक शुभ धारणाएँ एवं मान्यताएँ हैं। गोदना ललाट, हाथ, पाँव, होठ, छाती तथा जंघा आदि अंगों पर होता है।
12.टेरोकोटा-
उदयपुर से कोई साठ किलोमीटर दूर हल्दी घाटी के पास मोलेला ग्राम (नाथद्वारा, राजसमंद) में लोक कलात्मक जीवन का रूप सिरेमिक जैसी मिट्टी से देवी-देवताओं की आकर्षक मृण मूर्तियों तथा खिलौनों से उभारा जाता है। अत्यन्त प्राचीन काल में इस ग्राम की स्थापना जैगढ़ नाम से हुई थी किन्तु समयान्तर से इसका नाम सिंह मोलेला पड़ा।
13.कठपुतली-
कला और कलाकार-उदयपुर (राजस्थान) को कठपुतलियों का उद्गम स्थान माना जाता है। कठपुतली बनाने की पतले कला संसार भर में प्रसिद्ध हैं। कठपुतलियाँ बनाने के लिए लोग जैसे- देन तैसे अरडू की लकड़ी की व्यवस्था करते हैं।
14.रंगाई व छपाई-सांगानेरी प्रिंट-
यह छपाई सांगानेर (जयपुर) लिए की प्रसिद्ध है, जिसमें कृत्रिम रंगों का प्रयोग होता है। छपाई करने वाले छीपे एवं सांगानेर के छीपे 'नामदेवी छीपे' कहलाते हैं। सांगानेरी उस चित्रकला तकनीक में ब्लॉक अंकन में सक्षम, ब्लॉक निर्माता एवं बढ़ई को भट्ट घर के नाम से जाना जाता है।
ध्यातव्य रहे - बीकानेर के 'लहरिये व मोण्डे' प्रसिद्ध हैं तो सांगानेर की 'सांगानेरी प्रिण्ट' प्रसिद्ध है।
15.अजरख प्रिंट [ बाड़मेर ]-
यह बाड़मेर जिले का सबसे प्रसिद्ध प्रिंट है, जिसमें नीला व लाल रंग अधिक प्रयुक्त होता है।
16.मलीर प्रिंट [ बाड़मेर ] - इसमें काला व कत्थई रंग प्रयुक्त होता है।
17.वार्तिक- कपड़े पर मोम की परत चढ़ाकर चित्र बनाने की कला।
ध्यातव्य रहे-हूँगरशाही ओढ़नी बाटिक कला से सम्बन्धित है।
18.जाजम प्रिंट [ अकोला, चित्तौड़गढ़ ] इसमें लाल, काले व हरे रंग का अधिक प्रयोग होता है।
19.बगरू प्रिंट [ जयपुर] -
बेल-बूटों की छपाई की पारम्परिक कला हेतु प्रसिद्ध। इसमें काला व लाल रंग का अधिक प्रयोग होता है।
20.मसूरिया साड़ी/कोटा डोरिया [ कैथून ]-
कोटा डोरिया साड़ी के पैटर्न जैसे चोकोर को खत्स नाम दिया जाता है। राजस्थान की कोटा डोरिया साड़ी को उसके पंख जैसे हल्के वजन के लिए जाना जाता है। राजस्थान के कोटा व बारां जिले में बनाई जाने वाली 'चूंदड़ी' का कार्य हाथ की कढ़ाई प्रकार का है।
21.मुकेश- इसमें कपड़े पर बादले से छोटी बिंदकी की कढ़ाई होती है।
22.पेचवर्क-
विविध रंग के कपड़ों के टुकड़े काटकर कपड़ों पर विविध डिजाइनों में सिलना पेचवर्क कहलाता है। 'भरत' 'सूफ' 'हुरम जी''आरी' कढ़ाई व पेचवर्क से सम्बन्धित है।
23.चटपटी - इसमें कपड़ों को काटकर दूसरे कपड़े पर टांग दिया जाता है।
24.नमदे [ टोंक ] ऊन को कूट-कूट कर उसे जमा कर जो वस्त्र बनाये जाते हैं उसे नमदा कहते हैं।
25.थेवाकला [ प्रतापगढ़ ]
काँच की वस्तुओं पर सोने का सूक्ष्म व कलात्मक चित्रांकन कार्य करना थेवाकला कहलाता है। प्रतापगढ़ का सोनी परिवार इस कला के लिए सिद्धहस्त है। इस कला को एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में शामिल किया गया है।
26.ब्ल्यू पॉटरी [ जयपुर ] -
यह मूलत: तुर्की पर्शियन ईरान से लाहौर आई, लाहौर से जयपुर के मानसिंह प्रथम लेकर आये, लेकिन इस कला का सर्वाधिक विकास रामसिंह के काल में हुआ। कृपाल सिंह शेखावत इस कार्य के लिए प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। यह चित्रकारी चीनी मिट्टी के बर्तनों पर की जाती है।
27.कोफ्तगिरी [ जयपुर]
फौलाद की बनी हुई वस्तुओं पर सोने के पतले तारों की जड़ाई कोफ्तगिरी कहलाती है। यह मूलतः सीरिया की देन है, जो राज्य में जयपुर व अलवर की प्रसिद्ध है। श्री अब्दुल गफूर खाँ, इम्तियाज अली तथा अब्दुल रजाक कुरैशी पीतल पर खुदाई के लिए प्रसिद्ध हैं।
28.तहनिशां-
इसके अन्तर्गत किसी वस्तु पर डिजाइन को खोदकर उसमें पतला तार भर दिया जाता है
29.मुरादाबादी का काम [ जयपुर ]
पीतल के बर्तनों पर खुदाई कर के उस पर कलात्मक नक्काशी का कार्य किया जाता है।
30.बादला [ जोधपुर ] -
जिंक (जस्ते) से निर्मित पानी की बोतलें जिनमें लम्बे समय तक पानी ठंडा रहता है।
31.उस्ताकला या मुनव्वती कला [ बीकानेर ]-
ऊँट की खाल के कुप्पों पर सोने एवं चाँदी से कलात्मक चित्रांकन व नक्काशी उस्ताकला या मुनव्वती कला कहते हैं (बीकानेर के उस्ता परिवार द्वारा)
32.पेपरमेशी व कुट्टी का काम [ जयपुर ]-
इसमें कागज की लुग्दी बनाकर आकर्षक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, जो जयपुर व उदयपुर की प्रसिद्ध है।
33.तारकशी [ नाथद्वारा ]-
चाँदी के बारीक तारों से विभिन्न आभूषण एवं कलात्मक वस्तुएँ बनायी जाती हैं, जिसे तारकशी कहते हैं।
34.मथैरण कला [ बाड़मेर ]-
धार्मिक स्थलों एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित विभिन्न देवी-देवताओं के आकर्षक भित्ति चित्र बनाने की कला को मथैरण कला कहते हैं।
35.आलागीला (फुस्को बुनो) [ शेखावाटी ]-
पत्थर व चूने की दीवारों पर चूने व कली के साथ आकर्षक चित्रकारी करना आलागीला कहलाती है। कलाकार-'चूनागार' कहलाते हैं। इस कला के अधिकांश कारीगर बीकानेर जिले में है।
36.कुंदन कला-
स्वर्ण आभूषणों पर कीमती पत्थरों से जड़ाई करने की कला कुंदन कला कहलाती है, जो जयपुर की प्रसिद्ध है। ध्यान रहे-पन्ने की सबसे बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय मंडी-जयपुर है। पन्ना को 'हरि अग्नि' कहते हैं।
37.मीनाकारी-
मीनाकारी की कला को राजस्थान में सर्वप्रथम आमेर के राजा मानसिंह प्रथम लाहौर से अपने साथ लाये थे। राजस्थान जयपुर राजघराने ने मीनाकारी को प्रोत्साहित किया।
38.जट पट्टियाँ [ बाड़मेर ]-
बकरी की खाल से बनी पट्टियाँ (जसोल) जट पट्टियाँ कहलाती है, जो बाड़मेर की प्रसिद्ध है। इस उद्योग को जिरोही, भाकला, गंदहा आदि नामों से भी जानते हैं।
39.बाजोट (चौकी)
यह लकड़ी की कलात्मक चौकी होती है, जिस पर सामान्यतः भोजन, पूजा सामग्री आदि रखी जाती है।
40.खांडे-
लकड़ी की तलवारनुमा कलात्मक आकृति को 'खांडा' कहते हैं, जो लोकनाट्यों में काम आती है।
41.हाटडी-
घर में मसालों व अन्य समान रखने हेतु चार या छः खाने वाले कलात्मक डब्बे बनाए जाते हैं जिसे पश्चिमी राजस्थान में 'हाटड़ी' कहते हैं। हाटड़ी को चोपड़ा भी कहा जाता है। चोपड़े विवाह व अन्य मांगलिक अवसरों पर कुमकुम, अक्षत (चावल) आदि रखने में भी प्रयुक्त होता है।
42.बटेवड़े या थापड़ा-
ढूँढाड़ अंचल में बनाये जाने वाले गोबर के बटेवड़े भी लोककला के अनूठे दस्तावेज हैं। गोबर के सूखे उपलों को वर्षा आदि से सुरक्षित रखने के लिए उन्हें चौकोर अथवा आयताकार रूप में इकट्ठा कर इस ढेर में गोबर की ढालू छत बना दी जाती है, फिर उसे पुनः गोबर से लीप दिया जाता है।
43.हीड़-
मिट्टी का बना हुआ बड़ा दीपकनुमा पात्र, जिसमें ग्रामीण अंचलों में दीपावली के दिन बच्चे तेल व रुई के बिनौले जलाकर अपने परिजनों के यहाँ जाते हैं तथा 'हीड़ो दीपावली रो तेल मेलो' कहकर बड़ों का आशिर्वाद प्राप्त करते हैं।
44.चिकोरा-
पश्चिमी राजस्थान में कीपनुमा कलात्मक हीड को 'चिकोरा' कहते हैं। गाँवों में बच्चे इन चिकोरों को लेकर घर-घर से तेल इकट्ठा करते हैं। इस तेल से दीप जलाकर गाँव की सामूहिक खुशहाली की कामना की जाती है।
45.घोड़ा बावसी-
मिट्टी के बने कलात्मक घोड़े जिनकी आदिवासी भील, गरासियों में बड़ी मान्यता है। मनौती पूर्ण होने पर विशेषत: इसे बनाकर पूजा जाता है।
46.कोठियाँ- राजस्थान में ग्रामीण अंचलों में अनाज संग्रह हेतु प्रयुक्त मिट्टी के कलात्मक पात्र कोठियाँ कहलाते हैं।
47.सोहरियाँ -ग्रामीण अंचलों में भोजन सामग्री रखने के लिए प्रयुक्त मिट्टी के बने पात्र 'सोहरियाँ' कहलाते हैं।
48.मोण - मेड़ता क्षेत्र में बड़े आकार के मटके जिनका मुँह तो छोटा होता है, परन्तु आकृति बड़ी होती हैं मोण कहलाते हैं।
49.गोरबंद-
ऊँट के गले का आभूषण जो काँच, कोड़ियों, मोतियों व मणियों को गूंथकर बनाया जाता है। इसके सम्बन्ध में 'गोरबन्द नखरालो' लोक गीत प्रसिद्ध है। ऊँट के बच्चे के मुलायम बालों को कातकर बाखला बनाया जाता है।
ये भी जानें-
1.राजस्थान में हस्तकला उद्योग का केंद्र बोरानाड़ा (जोधपुर) हैं, तो हस्तशिल्प कागज राष्ट्रीय संस्थान सांगानेर (जयपुर) में स्थित है। हस्तकलाओं का तीर्थ जयपुर को कहा जाता है। वहीं अर्जुन प्रजापति का संबंध मूर्तिकला से रहा है ।
2.राजसमंद का मोलेला गाँव 'टेराकोटा' एवं जालौर का हरजी गाँव मामाजी का घोड़ा बनाने के लिए प्रसिद्ध है, इन दोनों ही स्थानों पर मिट्टी में गधे की लीद मिलाकर उससे मूर्तियाँ बनाई जाती है एवं उन्हें उ ताप पर पकाया जाता है।
3.चंदूजी का गढ़ा तथा बोडीगामा स्थल तीर कमान निर्माण के लिए विख्यात है।
4.विवाहोत्सवों पर वर-वधू के लिए बनने वाली जूतियाँ 'चोबवाली', वर की जूतियाँ 'बिनोटा', वर की सुनहरी जूतियों को 'बिंदोला' पुरानी जूतियों को 'अदराणी', स्त्रियों की जूतियों को 'सपाटा/लीतरा' कहते हैं, तो मोटे मजबूत और तीखी नोक के जूतों को 'सलेमशाही' कहते हैं।
5.अरबन हाट बाजार-राज्य के हस्तशिल्पियों, दस्तकारों एवं बुनकरों को अपने उत्पाद के विपणन एवं विक्रय हेतु दसवीं योजना में हाट बाजार योजना शुरू की गई, जिसने केन्द्र व राज्य सरकार का योगदान 70: 30 है। राजस्थान का प्रथम अरबन हाट बाजार जोधपुर में स्थित है।
6.ग्रामीण हाट बाजार- केन्द्र व राज्य सरकार का योगदान 75: 25 है। राज्य के 10 स्थानों (भरतपुर, बीकानेर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, जैसलमेर, झुंझुनूं, कोटा, दौसा, राजसमंद एवं उदयपुर) पर ग्रामीण हाट स्थापित किए गए हैं।
ध्यातव्य रहे - शिल्प शास्त्र मण्डन द्वारा रचित ग्रंथ 'रूप मण्डन'का संबंध मूर्ति कला से है।
राज्य के अन्य प्रमुख हस्तकलाएँ एवं उनके स्थान
कला |
स्थान |
जरी-बरी का बेस |
जयपुर |
फड़ |
शाहपुरा (भीलवाड़ा) |
नांदणे |
शाहपुरा (भीलवाड़ा) |
पिछवाईयाँ |
नाथद्वारा (राजसमंद) |
तारकशी के जेवर |
नाथद्वारा (राजसमंद) |
मिट्टी/मृण मूर्ति/टेराकोटा |
मोलेला (नाथद्वारा, राजसमंद) |
संगमरमर की मूर्तियाँ |
जयपुर, अलवर |
सुराही |
रामसर (बीकानेर) |
कूपी/कोपी |
बीकानेर |
मथैरण कला |
बीकानेर |
दर्पण पर कार्य |
जैसलमेर |
मेहंदी |
सोजत (पाली) |
पोकरण पॉटरी |
पोकरण (जैसलमेर) |
अजरक प्रिंट |
बाड़मेर |
मलीर प्रिंट |
बाड़मेर |
अम्ब्रेला |
फालना (पाली) |
रेडियो |
फालना (पाली) |
टी.वी. |
फालना (पाली) |
खेसले (ओढ़ने) के |
लेटा (जालौर) |
कृषि के औजार |
नागौर |
दरीयाँ |
टाँकला (नागौर), टोंक |
सूंघनी नसावर/नसवार |
ब्यावर |
ठप्पा/ढाबू |
बगरू (जयपुर), छीपों का आकोला (चित्तौड़) |
ऊनी कंबल व कालीन |
जैसलमेर, बीकानेर |
कागज/पाने बनाने की कला |
सांगानेर (जयपुर) |
बादला (जस्ते से बनी पानी की बोतल) |
जोधपुर |
मौठड़े |
जोधपुर |
चमड़े के बटवे |
जोधपुर |
जस्ते की मूर्ति |
जोधपुर |
हाथी दाँत की चूड़ियाँ |
जोधपुर |
ओढनी / लहरिया/चुनरिया |
जयपुर, जोधपुर |
लाख काँच का सामान |
जयपुर, जोधपुर |
मोजड़ियाँ |
जोधपुर, भीनमाल (जालौर) |
तलवार |
सिरोही |
खेलकूद का सामान |
हनुमानगढ़ |
गलीचे |
टोंक |
नमदे |
टोंक |
सोफ्ट स्टोन / रमकड़ा उद्योग |
गलियाकोट (डूंगरपुर) |
खस इत्र |
सवाई माधोपुर, भरतपुर |
तुड़ीया, पायल, पायजेब |
धौलपुर |
ब्ल्यू पॉटरी |
जयपुर |
कठपुतली |
उदयपुर |
कावड़ |
बस्सी (चित्तौड़गढ़) |
देवाण/बेवाण |
बस्सी (चितौड़गढ़) |
गणगौर |
बस्सी (चितौड़गढ़) |
जाजम प्रिंट |
छीपों का आकोला (चित्तौड़गढ़) |
ब्लैक पॉटरी |
कोटा |
मांगरोल कला |
बारां |
कशीदाकारी जूतियाँ |
भीनमाल (जालौर) |
कागजी पॉटरी/टेरिकोटा |
अलवर |
मसूरिया/कोटा डोरिया |
कैथून (कोटा) |
थेवाकला |
प्रतापगढ़ |
मीनाकारी |
जयपुर |
कोपताकला |
जयपुर |
कुंदन का कार्य |
जयपुर |
चंदन की मूर्तियाँ |
चूरू |
पीला पोमचा |
शेखावाटी |
पेंचवर्क |
शेखावाटी |
चटापटी |
शेखावाटी |
गोटा/वार्तिक |
खंडेला (सीकर) |
बंधेज |
शेखावाटी |
पाव रजाई |
जयपुर |
ऊनी बरड़ी, पटटू |
जैसलमेर, बाड़मेर (विश्नोई समाज के दूल्हे को दहेज में मिलने वाला वस्त्र ) |
सुनहरी टेराकोटा |
बीकानेर |
रामदेवजी के घोड़े |
पोकरण (जैसलमेर) |
आम पापड़ |
बाँसवाड़ा |
लकड़ी का नक्काशीदार फर्नीचर |
बाड़मेर |
शीशम का फर्नीचर |
श्रीगंगानगर एवं हनुमानगढ़ |
सॉफ्ट टॉयज |
श्रीगंगानगर |
वुडन पेन्टेड फर्नीचर |
किशनगढ़ (अजमेर) |
लाख की पॉटरी |
बीकानेर |
गरासियों की फाग (ओढ़नी) |
सोजत(पाली) |
लकड़ी के झूले |
जोधपुर |
कृषिगत औजार |
गजसिंहपुरा (गंगानगर) |
एल्यूमिनियम के खिलौने |
जोधपुर |
चूनरी |
जोधपुर |
व्हाइट मैटल के पशु-पक्षी के चित्र |
उदयपुर |
कल्चर्ड मोती (मानव निर्मित) |
बाँसवाड़ा |
रसदार फल |
श्रीगंगानगर, झालावाड़ |
पेपरमेशी (लुग्दी) का काम |
जयपुर, उदयपुर |
छपाई के घाघरे |
आकोला (चित्तौड़गढ़) |
हरी मैथी |
नागौर |
लोहे के औजार |
नागौर |
गुलाब की खेती व गुलकंद |
पुष्कर (अजमेर) |
मिट्टी के खिलौने |
बू (नागौर) |
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