पुनर्जागरण एवं सामाजिक सुधार - भारत में 19वीं सदी में सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में एक ऐसे अभूतपूर्व आन्दोलन का सूत्रपात हुआ, जिसने इस देश के जन-जीवन को असाधारण रूप से प्रभावित किया। यह आन्दोलन 'पुनर्जागरण' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
Punarjagran or Smajik Sudhar in Hindi
भारतीयों को कम्पनी सरकार के प्रति वफादार बनाने के लिए 19वीं सदी में इसाई मिशनरियों ने भारत में क्रिश्चियन शिक्षा को लागू किया [CTET-2014]।
सामाजिक सुधार अधिनियम
अधिनियम |
वर्ष |
गवर्नर जनरल |
विषय |
1. सती प्रथा प्रतिबंध |
1829 |
लॉर्ड बैंटिक |
सती प्रथा पर प्रतिबंध बंगाल में 1830 में बम्बई व मद्रास में भी लागू। 1833 में सम्पूर्ण देश में प्रतिबंध |
2. शिशु वध |
1785-1804 |
वेलेजली |
शिशु हत्या पर प्रतिबंध, बंगालियों व राजपूतों में प्रचलित । |
3. हिन्दू विधवा पुनविर्वाह अधिनियम |
1856 |
लॉर्ड कैनिंग |
विधवा विवाह की अनुमति, ईश्वर चन्द विद्यासागर के प्रयासों से, विधवा विवाह से उत्पन्न बच्चे को वैध माना। |
4. नैटिव मैरिज एक्ट |
1872 |
नार्थ बुक |
अंतर्जातीय विवाह को मान्यता |
5. एज ऑफ कंसेस एक्ट( सम्मति आयु अधिनियम) |
1891 |
लैंस डाउन |
विवाह की आयु 12 वर्ष लड़की के लिए निर्धारित । तिलक ने विरोध किया। |
6. शारदा एक्ट |
1930 |
इरविन |
लड़की की आयु 14 वर्ष, लड़के की विवाह की आयु 18 वर्ष निर्धारित की । |
7. दास प्रथा पर प्रतिबंध |
1843 |
एटनबरो |
1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा दास प्रथा को और कानूनी 1843 में सम्पूर्ण भारत में प्रतिबंध । |
राजा राममोहन राय व ब्रह्म समाज
राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के पिता कहे जाते है जिनका जन्म 22 मई, 1772 ई. में बंगाल के एक 'कुलीन ब्राह्मण' घराने में हुआ। ये हिन्दी, अरबी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, यूनानी के प्रकाण्ड विद्वान थे। 'भारत का प्रथम आधुनिक पुरूष' 'भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत’, ‘आधुनिक भारत के जनक' और 'सुधार आन्दोलनों के प्रवर्तक' राजा राममोहन राय ही माने जाते हैं। राजा राममोहन राय पश्चिम की 'वैज्ञानिक' एवं 'बुद्धिवादी विचारधारा' से प्रभावित थे तथा 'लॉर्ड मैकाले' की शिक्षा व्यवस्था के समर्थक थे। इनके पिता का नाम रमाकान्त राय और माता का नाम तारिणी देवी था।
राजा राममोहन राय के सामाजिक सुधार-आत्मीय सभा की स्थापना 1815 ई. (RBSE कक्षा XII इतिहास पृष्ठ संख्या 107 में आत्मीय सभा का स्थापना वर्ष 1814 है।) में राजा राममोहन राय ने की थी।
इन्होंने केन और कठ उपनिषद का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया तथा ईसाई धर्म का स्वतः अध्ययन कर 1820 ई. में इसाई धर्म पर प्रिसेप्ट ऑफ जीसस नामक पुस्तक लिखी तो वहीं उन्होंने फारसी भाषा में तूहफात-उल- -मुहीद्दीन नामक पुस्तक की रचना की जिसमें उन्होंने एकेश्वरवाद पर बल दिया। भारत में धर्म व समाज सुधार कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए राजा राममोहन राय ने 1828 ई. में 'ब्रह्म समाज' की स्थापना की। जिसके तीन प्रमुख उद्देश्य थे-
इनके समय सामाजिक व्यवस्था बहुत ही खराब थी। समाज में कन्या वध, बाल-विवाह, सती प्रथा आदि कुरीतियाँ प्रचलित थीं। इन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप 'लॉर्ड विलियम बैंटिक' [HTET-2014, CGTET 2011] ने 1829 ई. (धारा 17 में) में 'सती प्रथा एवं कन्या वध' को गैर-कानूनी एवं दंडनीय घोषित किया। 20 जनवरी, 1817 को उन्होंने राधाकांत देव, रासामी दत्त, वैद्यनाथ मुखोपाध्याय, डेविड हेयर, सर एडवर्ड हाइड आदि शिक्षाविदों के साथ मिलकर कोलकाता में हिन्दू कॉलेज खोला। 1855 ई. में यह कॉलेज दो भागों हिन्दू स्कूल व प्रेसीडेंसी कॉलेज (वर्तमान में प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी) में विभक्त कर दिया गया। हिन्दू स्कूल को The Eton of East कहते हैं, तो 1822 ई. में उन्होंने कोलकाता में एक एंग्लो-हिन्दू स्कूल खोला और उसके बाद वेदांत कॉलेज खोला। इन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए 'बहु-विवाह' का विरोध किया तथा 'विधवा-विवाह' का समर्थन किया।
राजा राममोहन भारतीय पत्रकारिता के भी अग्रदूत थे। उन्होंने प्रेस सेंसरशिप अधिनियम, 1823 को निरस्त करवाने में भी योगदान दिया। ब्रिटिश संसद द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श किये जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उनके सामाजिक सुधारों के संबंध में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है-राजा राममोहन राय सम्पूर्ण संसार में विश्ववाद के प्रथम व्याख्याता थे।
उनको Herald of New Age भी कहते हैं। उन्होंने 1821 ई. में बंगाली पत्रिका संवाद कौमुदी और उसके एक वर्ष बाद फारसी में मिरातुल अखबार निकाल कर भारतीय पत्रकारिता के विकास व उसकी स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया, तो अंग्रेजी में ब्रह्मणीकल मैग्जीन भी प्रकाशित की।
वे 1829 में इंग्लैण्ड गये थे, तो वहीं यूरोप की यात्रा करने वाले प्रथम भारतीय थे। अभी ब्रह्म समाज अपने शैशवकाल में ही था कि 27 सितम्बर 1833 ई. में राजा राममोहन राय का ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में देहान्त हो गया, उन्हें सर्वप्रथम स्टेपलेटन (इंग्लैण्ड) में दफनाया गया था, लेकिन 1843 ई. में उन्हें ब्रिस्टल में नवनिर्मित आमॉस वेल कब्रिस्तान में दफनाया गया था। वहां आज भी उनकी स्मारक बनी हुई है, जिसका हरिकेला नाटक उल्लेखित है। ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी में ग्रीन कॉलेज में उनकी मूर्ति स्थापित की गई है।
वे वहां मुगल बादशाह की ओर से बादशाह अकबर द्वितीय की पेंशन बढ़वाने हेतु ब्रिटिश क्राउन से निवेदन करने हेतु भेजे गये थे, तो वहीं राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि मुगल बादशाह अकबर द्वितीय द्वारा प्रदान की गई थी। मैकनिकोल के अनुसार, 'राजा राममोहन राय ने जो ज्योति जलाई उसने भारतीय जीवन के अंधकार को नष्ट कर दिया। ब्रह्म समाज एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर आधारित है।
महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर
राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज का नेतृत्व 'महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर' (1817-1905 ई.) के हाथों में आ गया। देवेन्द्र नाथ ठाकुर हिन्दू धर्म में व्याप्त अंधविश्वासों एवं रुढ़ियों को मुक्त करना चाहते थे और धार्मिक चर्चाओं के लिए उन्होंने 'तत्वबोधनी सभा' 1839 ई. में स्थापित की। इन्होंने ब्रह्म धर्म नामक धार्मिक पुस्तिका लिखी व ब्रह्म स्वरूप ब्रह्मोपासना की शुरुआत की। राजा राममोहन राय के समय ब्रह्म समाज में वेदों व उपनिषदों को प्रमाणिक माना जाता था। परन्तु देवेन्द्र नाथ के समय ये निश्चय हुआ कि 'वेद भी अन्तिम प्रमाण नहीं समझे जा सकते और केवल उपनिषदों को ही अन्तिम प्रमाण के रूप में समझा जाना चाहिए।'
केशवचन्द्र सेन
देवेन्द्र नाथ टैगोर के प्रयासों से केशवचन्द्र सेन ने 1857 में ब्रह्म समाज में प्रवेश लिया। 1841 ई. में केशवचन्द्र सेन ने अंग्रेजी के प्रथम भारतीय दैनिक समाचार पत्र इंडियन मिरर का संपादन किया। 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ ठाकुर व केशवचन्द्र सेन में मतभेद शुरू हो गया। ब्रह्म समाज दो भागों में विभाजित हो गया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर का संगठन 'आदि ब्रह्म समाज' तथा केशवचन्द्र सेन का 11 नवम्बर 1866 को स्थापित नवीन संगठन 'भारतीय ब्रह्म समाज' कहलाया।
केशवचन्द्र सेन ने इंग्लैण्ड से लौटने पर एक नई संस्था 'नवविधान' की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने 'विश्व धर्म' की भावना को साकार करने का संकल्प किया, श्री धरालु नायडू ने 1871 ई. में वेद समाज को पुनः संगठित कर इसे ब्रह्म समाज ऑफ साउथ इंडिया का स्वरूप प्रदान किया।
1872 ई. में सरकार ने नेटिव मैरिज एक्ट या सिविल मैरिज एक्ट लागू किया जिसमें लड़के एवं लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाकर क्रमशः 18 वर्ष एवं 14 वर्ष की गई। 1878 ई. में ब्रह्म समाज में पुनः विघटन हुआ, जब केशवचन्द्र सेन के शिष्य आनन्दमोहन बोस, शिव चन्द्रदेव व उमेश चन्द्र दत्त ने इनसे अलग होकर साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की, तो वहीं सन् 1929 में अजमेर निवासी योग्य आयु हरविलास शारदा के प्रयासों से बाल विवाह निषेध कानून (शारदा) एक्ट) लागू हुआ, जिसमें लड़के एवं लड़की की वि क्रमशः 18 एवं 16 वर्ष निर्धारित की गई थी।
केशवचन्द्र सेन ने मुम्बई यात्रा के बाद 1867 ई. मुम्बई में प्रार्थना समाज' की स्थापना की। इस संस्था के संस्थापक 'डॉ. आत्माराम पांडुरंग' थे। 1882-83 ई. में प्रसिद्ध महिला 'पं. रमाबाई' इसमें शामिल हुईं तब उन्होंने 'आर्य महिला समाज' का गठन किया। इन्होंने भी जाति प्रथा का विरोध किया तथा अंतर्जातीय विवाह एवं विधवा विवाह का पुरजोर समर्थन किया, तो वहीं संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्होंने विधवा पुनर्विवाह एसोसिएशन की स्थापना की।
स्वामी दयानन्द और आर्य समाज
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 सितम्बर, 1824 को गुजरात की मौरवी रियासत (अब जिला राजकोट) के टंकारा गाँव में हुआ था। मूलनाम- मूलशंकर था तथा दयानन्द नाम गुरु विरजानन्द ने दिया। 21 वर्ष की आयु में उन्होंने गृहत्याग दिया और देश में घूम घूमकर सत्य और ज्ञान की खोज करने लगे और 15 वर्ष के घुमक्कड़ी जीवन के बाद 1860 ई. में वे मथुरा आये जहाँ उन्होंने गुरु स्वामी विरजानन्द जी के सान्निध्य में सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का अध्ययन किया।
19वीं शताब्दी में भारत के समाज और हिन्दू धर्म में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाली सबसे प्रमुख संस्था 'आर्य समाज' [UPTET 2011] थी। इसकी स्थापना 10 अप्रैल, 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती (मूल नाम मूलशंकर) ने बंबई में की, जिसका प्रमुख उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनःस्थापना करना था तथा आर्य समाज का उद्देश्य वाक्य था-कृण्वंतो विश्वमार्यम। पंजाब में आर्य समाज का सर्वाधिक प्रसार हुआ। 1863 ई. में दयानन्द ने झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए पाखण्ड खाण्डिनी पताका लहरायी तो वहीं 1874 ई. में हिन्दी में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश की रचना की गई, जिसे आर्य समाज की बाइबिल कहा जाता इन्होंने सर्वप्रथम 'वेदों की ओर लौटो' का नारा दिया। वेदों की थे व्याख्या भी स्वयं अपने ढंग से की। इस सम्बन्ध में उन्होंने 'वेदभाष्य' अ तथा 'वेदभाष्य भूमिका' नामक दो ग्रन्थों की रचना की।
आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन भी प्रारम्भ किया जिसके अंतर्गत हिन्दू धर्म से अन्य धर्म ग्रहण कर चुके लोगों को अन्य धर्मों से हिन्दू धर्म में वापस लाने का प्रयत्न किया गया। स्वामी दयानन्द स्वराज शब्द का प्रयोग करने वाले प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने India for Indians का नारा दिया और हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की वकालत की। 19वीं सदी के भारत की पृष्ठभूमि में जाति प्रथा का उन्मूलन, विधवा-विवाह और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने तथा स्वराज्य जैसे ज्वलंत विषयों पर अपनी आवाज उठाने वालों में वह अग्रणी थे। 1882 ई. में दयानंद सरस्वती द्वारा गौरक्षिणी सभा की स्थापना की गई। लाहौर-1877 ई. में आर्य समाज का परिवर्तित मुख्यालय।
30 अक्टूबर, 1883 ई. को दयानंद सरस्वती का अजमेर में निधन हो गया। स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु के बाद आर्य समाज में शिक्षा के माध्यम के आधार पर विभाजन हो गया, जिसमें तिलक गुट ने लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा मुंशी लेखराम गुट ने हरिद्वार के निकट गंगा तट पर 1902 ई. में 'गुरुकुल कांगड़ी' की स्थापना की जो वर्तमान में प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन चुका है। नमस्ते शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम आर्य समाज ने किया, तो वहीं आर्य समाज को सैनिक हिन्दुत्व की उपाधि प्रदान की गई।
थियोसोफिकल सोसायटी -
थियोसोफिकल सोसायटी एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आन्दोलन था। थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना एक रूसी महिला 'मैडम ब्लावत्स्की' तथा एक अमेरिकी कर्नल 'एच.एस. अल्कॉट' द्वारा 17 नवम्बर, 1875 ई. अमेरिका के 'न्यूयॉर्क' नगर में की थी। इस संस्था का नामकरण 'थियोस' और 'सोफिया' दोनों यूनानी शब्दों के आधार पर किया गया। जिसका आधार है 'ब्रह्म विद्या'। एच.एस. अल्कॉट इसके प्रथम अध्यक्ष थे जो 1907 (मृत्यु) तक इसके अध्यक्ष रहे थे, तो वहीं आरम्भ में इसके सदस्यों की संख्या 16 थी तथा ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस एडिसन इसके आरम्भिक 16 सदस्यों में से एक थे। इसका मुख्यपत्र मासिक थियोसॉफिस्ट की शुरुआत सन् 1879 में मैडम ब्लावत्स्की ने की। स्वामी दयानन्द का निमंत्रण पाकर 1879 ई. ये दोनों भारत आये और मदास प्रान्त में 'आडियार' स्थान पर उनके केन्द्र स्थापित किये। इन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि 'हिन्दू धर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ है और सत्य इसमें ही निहित है।' भारतवर्ष की राष्ट्रीय शाखा 18 दिसम्बर, 1890 में अड्यार में स्थापित हुई, जिसके प्रथम अध्यक्ष बर्टरम कैटले थे तथा सन् 1895 में राष्ट्रीय शाखा का प्रधान कार्यालय वाराणसी लाया गया। श्री मूलजी थेकरसे इसके प्रथम भारतीय सदस्य थे। 8 मई 1891 ई. को मैडम ब्लावत्स्की का निधन हो गया तथा उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष पूरे विश्व में 8 मई को White Lotus Day के रूप में मानते हैं। 17 फरवरी, 1907 को कर्नल एच.एस. अल्कॉट का भी निधन हो गया। मैडम ब्लावत्स्की द्वारा लिखित पुस्तक- The Secret Doctrine है।
श्रीमती एनी बेसेन्ट
इनका जन्म 1847 ई. में ऑयरलैण्ड में हुआ। एनी बेसेन्ट को Diamond Soul कहा जाता था। इनके पिता डॉ. विलियम वेजवुड का जन्म ऑयरलैंड में हुआ था, लेकिन वे लंदन आकर बस गये। इनके बचपन का नाम वुड था तथा इनका विवाह 20 वर्ष की आयु में 1867 में पादरी फ्रेंक बेसेन्ट के साथ हुआ, तो वहीं इसके पुत्र का नाम ऑर्थर डिग्बी व पुत्री का नाम माबेल था तथा 1873 में एनी बेसेंट का अपने पति से संबंध विच्छेद हो गया।
वे मैडम ब्लावत्स्की के विचारों से प्रभावित होकर 10 मई, 1889 ई. को थियोसोफिकल सोसायटी की सदस्य बनीं और 1891 ई. में उनकी मृत्यु के उपरान्त इस संस्था की सर्वेसर्वा बन गई।
इन्होंने 1898 ई. में बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज' की स्थापना में पूर्ण सहयोग दिया। जो आगे चलकर 'हिन्दू विश्वविद्यालय' के रूप में विकसित हुआ। उन्होंने हिन्दुत्व के समग्र रूप का प्रबल समर्थन किया तथा भारतीयों को जाग्रत करने और अपने विचारों का तीव्र प्रसार करने की दृष्टि से दो पत्रों (प्रथम-कॉमनवील, व दूसरा- न्यू इण्डिया) का प्रकाशन आरम्भ किया। कर्नल अल्कॉट के निधन के बाद 1907 ई. में डॉ. एनी बेसेन्ट थियोसोफिकल सोसयटी की द्वितीय अध्यक्षा बनीं।
एनी बेसेंट ने सन् 1918 में Indian Scout Movement की स्थापना की। वे सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के गरम व नरम दल को मिलाने में भी सफल रहीं, तो वहीं 1917 में वे कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्ष बनीं, ये कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष थीं। भारत में वे बीबी बासंती के नाम से लोकप्रिय थीं। 20 सितम्बर, 1933 ई. में 'आडियार' में इनका स्वर्गवास हो गया।
स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण मिशन
रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी, 1836 ई. को बंगाल में कमरपुकुर में हुआ। इनके पिता खुदीराम व माता चन्दा देवी थी तथा इनका असली नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। 1852 ई. में वे कलकत्ता य आये व कलकत्ता के नजदीक दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के पुजारी बन गये।
उसके बाद उन्होंने 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की और फिर वे वृंदावन, बनारस, प्रयाग आदि स्थानों पर गये। 16 अगस्त 1886 को उन्होंने शरीर त्याग दिया। रामकृष्ण मठ की स्थापना उन्होंने ही की थी, तो वहीं उनके प्रिय शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त थे तथा उन्होंने अपनी समस्त ईश्वरीय शक्ति नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) को दे दी। वर्तमान भारत के रचयिता स्वामी विवेकानंद हैं।
इनका जन्म 1863 ई. में कलकत्ता (बंगाल) में हुआ था। स्वामी विवेकानन्द का बचपन का नाम 'नरेन्द्र नाथ दत्त' था। उनके माता-पिता उन्हें Bile कहते थे तथा इनके पिता विश्वनाथ दत्त एक मशहूर वकील थे व इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। नवम्बर, 1881 ई. में इनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई और वे उनके शिष्य बन गये तथा उन्होंने 1886 ई. में बारानगर (पं. बंगाल) में बारानगर मठ की स्थापना की। अपने गुरु के उपदेश, वेदांत दर्शन और हिन्दू धर्म की विशेषताओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए उन्होंने समस्त भारत की यात्रायें की। वे दिसम्बर, 1892 में कन्याकुमारी पहुँचे, जहाँ उन्होंने तीन दिन तक गहन साधना की व ज्ञान प्राप्त किया। वहाँ सन् 1970 में विवेकानन्द रॉक स्मारक बनाया गया है।
सर्वधर्म सम्मेलन में जाने से पूर्व महाराजा खेतड़ी 'अजीत सिंह' ने नरेन्द्र नाथ दत्त को 'स्वामी विवेकानन्द' नाम दिया। खेतड़ी को 108 मंदिरों की नगरी कहा जाता है, तो वहीं मैनाबाई खेतड़ी की प्रसिद्ध नर्तकी थी, जिसने विवेकानन्द को प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो भजन सुनाया तथा इनको स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञानदायिनी माँ का संबोधन दिया। 11 सितम्बर, 1893 ई. में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने हिन्दू धर्म और भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। इस सम्मेलन में उपस्थित विभिन्न धर्मों के आचार्य और श्रोता विवेकानन्द से प्रभावित हुए। स्वामीजी के भाषणों की प्रशंसा में अमेरिका के समाचार पत्र द न्यूयॉर्क हेराल्ड ने लिखा 'सर्वधर्म सम्मेलन में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं।
उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म मार्ग में इस प्रकार से समुन्नत राष्ट्र (भारतवर्ष) में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है।' तथा न्यूयॉर्क क्रिटिक ने लिखा-'वे ईश्वरीय शक्ति प्राप्त वक्ता हैं। उनके सत्य वचनों की तुलना में उनका बुद्धिमतापूर्ण चेष्टा पीले और नारंगी वस्त्रों से लिपटा हुआ कम आकर्षक नहीं है।' स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका व इंग्लैंड का भ्रमण किया और हिन्दू धर्म व संस्कृति का प्रचार किया। 1896 ई. में न्यूयार्क में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की। 1896 ई. में स्वामी रामकृष्ण की मृत्यु के बाद श्रीरामकृष्ण और हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने 5 मई 1897 ई. में कलकत्ता के समीप 'बेलूर' में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। 1 मई, 1897 को कोलकाता में रामकृष्ण मिशन एसोसिएशन की स्थापना की। 9 दिसम्बर, 1898 को उन्होंने पश्चिम बंगाल में बेलूर मठ की स्थापना की। 19 मार्च, 1899 को उन्होंने मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना की।
लॉस एंजिल्स, सेन्ट फ्रांसिस्को में 'वेदान्त' केन्द्र खोले। स्वामी को विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म और संस्कृति को न केवल भारत में वरन् की थी, समस्त विश्व में प्रतिष्ठित किया। इसी कारण सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें समस्त 'सांस्कृतिक चेतना का जनक' कहा। विवेकानन्द अधिक दिनों तक सेवा कार्य नहीं कर सके और 1903 में 39 वर्ष की अल्पायु में इनका देहान्त हो गया।
स्वामी विवेकानन्द को वीर संन्यासी कहा जाता था, तो वहीं अमेरिका में विवेकानन्द को तूफानी हिन्दू कहा गया था। उनकी प्रमुख रचनायें कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, हिन्दू धर्म, प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा, हमारा भारत, धर्म रहस्य, शक्तिशाली विचार आदि हैं। उनका समस्त साहित्य दस खण्डों में प्रकाशित किया गया तथा उन्होंने प्रबुद्ध भारत का संपादन अंग्रेजी में प्रबोधिनी का संपादन बंगाली में किया, तो वहीं उनका दर्शन वेदान्त दर्शन था। सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था- जहाँ तक बंगाल का संबंध है। हम विवेकानन्द को आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन का आध्यात्मिक पिता कह सकते हैं।
उनके जन्म दिवस 12 जनवरी को सन् 1985 से नन्द प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है, तो वहीं बेलूर मठ दो जुड़वा संस्थाओं रामकृष्ण मठ व रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय नाम है जो पश्चिम बंगाल में हावड़ा जिले में हुगली नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है, जहाँ श्री रामकृष्ण, श्रद्धेय माँ श्री शारदा देवी व स्वामी विवेकानन्द का मंदिर है। स्वामी विवेकानन्द का प्रसिद्ध ने कथन है- 'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये
महात्मा ज्योतिबा फूले
ज्योतिबा फूले एक महान समाज सुधारक थे। इन्होंने अछूतोद्धार, स्त्री शिक्षा का समर्थन, हिन्दू विधवाओं में पुनर्विवाह एवं उनकी सामाजिक स्थितियों में सुधार और ब्राह्मणवाद का विरोध करने में अपना जीवन समर्पित कर दिया। वीर सावरकर ने इन्हें 'क्रान्तिकारी समाज सुधारक' तथा महात्मा गांधी ने इन्हें 'वास्तविक महात्मा' कहकर सम्बोधित किया। इन्होंने 24 सितम्बर, 1873 ई. को 'सत्य शोधक समाज' की स्थापना की। इन्होंने मनु संहिता की प्रतियों को सार्वजनिक रूप से जलाया तथा हिन्दू कानूनों को मानने से इंकार कर दिया। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य शूद वर्ग में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना और ब्राह्मणों के एकाधिकार एवं प्रभुता को समाप्त करना था। दीनबंधु समाचार पत्र के माध्यम से सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणवाद पर घातक प्रहार किया। ज्योतिबा राव फुले ने कहा कि 'उच्च जातियों का उनकी भूमि पर कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि वास्तव में भूमि का संबंध देशज लोगों से है अर्थात् तथाकथित निम्न जातियों से है। [CTET-2014] 1873 ई. में श्री ज्योतिबा फूले द्वारा गुलामगिरी (गुलाम) नामक पुस्तक लिखी गई, जिसे उन्होंने अमेरिका में गुलामों को मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करने वालों को समर्पित किया।
मुसलमानों में पुनर्जागरण आन्दोलन
मुस्लिम समाज में अनेक कुरीतियाँ थी, जिसके कारण समाज का विकास अवरुद्ध था तथा मुख्य धारा से कटे हुए थी। इसलिए मुसलमानों के उत्थान के लिए सबसे पहले 'सैय्यद अहमद बरेलवी' (1786 1831) ने धार्मिक आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन को 'वहाबी आन्दोलन' के नाम से पुकारा गया। वहाबी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य इस्लाम को परिशुद्ध करना था। वहाबी आन्दोलन के बाद 1867 ई. में देवबंध में 'दारूल उलूम' कायम हुआ, आंदोलन के नेता मौलाना हुसैन अहमद थे तथा इसका उद्देश्य क्लासिकी इस्लाम को पुनर्जीवित कर मुसलामानों की आध्यात्मिक एवं नैतिक स्थिति में सुधार करना था।
सर सैय्यद अहमद खाँ व पुनर्जागरण -
मुस्लिम समाज में सुधार का एक महत्वपूर्ण प्रयास सर सैय्यद अहमद खाँ के द्वारा किया गया, जो 'अलीगढ़ सुधार आन्दोलन' के नाम से प्रसिद्ध है। सर सैय्यद अहमद खाँ का जन्म 1816 ई. में दिल्ली में एक कुलीन परिवार में हुआ। 1857 ई. में स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के बाद उन्होंने यह महसूस किया कि मुसलमानों को समय के साथ बदलना चाहिए। इसी उद्देश्य से 1875 ई. में अलीगढ़ में 'मोहम्मडन ओरियंटल कॉलेज' की स्थापना की, जो 1920 ई. में 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' के रूप में परिणित हुआ। सन् 1866 में सर सैय्यद अहमद खाँ ने मुसलमानों में उदारवादी विचारों के प्रसार हेतु मोहम्मडन एज्यूकेशनल कांफ्रेंस की स्थापना की जो बाद में कांग्रेस व हिन्दू विरोधी हो गई। इनके द्वारा 'तहजीब-उल-अखलाक' नामक एक समाचार पत्र भी प्रकाशित हुआ। सर सैय्यद अहमद के नेतृत्व में 'अलीगढ़ आन्दोलन' ने भारत के समस्त मुस्लिम समाज में एक नई जागृति और आधुनिकता लाने का कार्य किया। सन् 1898 में सर सैय्यद अहमद खां एवं एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज के व्याख्याता थियोडोर बैंक ने यूनाइटेड भारत देशभक्त समिति की स्थापना की। सन् 1898 में सर सैय्यद अहमद खाँ का देहांत हुआ।
ध्यातव्य रहे -
सैय्यद अहमद खान ने बनारस के राजा शिव प्रसाद के साथ 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन का विरोध किया था और इन्होंने यूनाईटेड इंडियन पेट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना की थी। सर सैयद अहमद खान का विचार था, कि 'भारत में हिन्दू और मुसलमान के द्वारा एक राष्ट्र का गठन हुआ, वे भारत की दो आंखें हैं, अगर आप एक को चोट पहुंचाएंगे तो आप दूसरे को भी चोटिल करेंगे।'
1894 लखनऊ में प्रारभ नदवा-उल-उलेमा आंदोलन का उद्देश्य नई मुस्लिम शिक्षा प्रणाली, धार्मिक विज्ञान का विकास, मुस्लिम नैतिकता में सुधार व इस्लाम में पनपे धार्मिक विवादों का अंत करना था, तो वहीं इस आंदोलन के संस्थापक मौलाना शिबली सुमानी थे। अहमदिया/कादियानी आंदोलन की स्थापना 19वीं सदी के अंत में मिर्जा गुलाम अहमद ने पंजाब के कादियानी में की, जिसका उद्देश्य इस्लाम में सुधार तथा इसाई मिशनरियों एवं आर्य समाजियों के आक्रमणों से इस्लाम की रक्षा करना था, तो वहीं इसके द्वारा आधुनिक औद्योगिकरण एवं तकनीकी प्रगति को धार्मिक स्वीकृति प्रदान की तथा यह सर्वाधिक संगठित मुस्लिम आंदोलन था।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
बंगाल के पुनर्जागरण के मुख्य स्तम्भ माने जाने वाले ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म ब्रिटिश भारत की बंगाल प्रेसीडेंसी के वीरसिंह गांव (वर्तमान में पं. बंगाल के पश्चिम मेदिनपुर) में 26 सितम्बर, 1820 को हुआ था। पिता-ठाकुरदास बंधोपाध्याय, माता-भगवती देवी, पत्नी- दिनमणि देवी तथा पुर-नारायणचन्द्र बंद्योपाध्याय । विद्यासागर ने बंग्ला वर्णमाला लिखी जिसका प्रयोग वर्तमान समय में भी होता है, तथा उनकी विद्वता के कारण ही उन्हें कोलकाता के संस्कृत कॉलेज में विद्यासागर की उपाधि दी गई थी, तो वहीं वे नारी शिक्षा के भी समर्थक थे और उन्होंने इस क्रम में बैथून स्कूलों की स्थापना की। उन्हीं के प्रयासों से 25 जुलाई, 1856 ई. को हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून पारित हुआ, तो वहीं उन्होंने अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक विधवा से ही किया तथा पहला कानूनी हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कोलकाता में दिसम्बर, 1856 में सम्पन्न हुआ। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की कर्मभूमि झारखण्ड के जामतारा जिले का करमाटार था, तो वहीं करमाटार स्टेशन का नाम उनके सम्मान में विद्यासागर रेल्वे स्टेशन रखा गया।
यंग बंगाल आंदोलन (1826 ई.)
इस आंदोलन के नेता और प्रेरक हेनरी विवियन डेरोजियो थे, जिनका जन्म 1809 ई. में कलकत्ता में हुआ था तथा इन्होंने अपने इस आंदोलन के जरिये प्राचीन रीति-रिवाजों व परम्पराओं का विरोध किया एवं महिला शिक्षा व महिला अधिकारों की सिफारिश की। ये हिन्दू कॉलेज कलकत्ता में शिक्षक थे। डेरोजियो एवं उनके समर्थक आधुनिक पाश्चात्य विचारों से प्रभावित थे, तो वहीं डेरोजियो को बंगाल की आधुनिक सभ्यता का अग्रदूत तथा आधुनिक भारत का प्रथम राष्ट्रवादी कवि कहा जाता है तथा इनके द्वारा स्थापित संगठन एकेडेमिक ऐसोसिएशन (बौद्धिक वाद-विवाद के लिए स्थापित) व एंग्लो-इंडियन हिन्दू ऐसोसिएशन।
निरंकारी आंदोलन
बाबा दयालदास (1783-1855 ई.) द्वारा सिक्ख समाज में शुद्धि एवं वापसी के लिए इस आंदोलन की शुरुआत की गई। उन्होंने 19वीं सदी के चौथे दशक में सिक्ख धर्म को इसके मूल तक तथा वापस लाने व ईश्वर की निरंकार के रूप में पूजा करने पर बल दिया, तो वहीं इस आंदोलन का उद्देश्य, मूर्तिपूजा, मूर्तिपूजा से जुड़े धार्मिक अनुष्ठान एवं इन अनुष्ठानों का संचालन करने व पुजारियों का त्याग करना था। 1855 ई. में अपनी मृत्यु से पहले दयालदास द्वारा अपने पुत्र बाबा दरबार सिंह (1814-70 ई.) को अपना उत्तराधिकारी बनाया गया था तो वहीं गुरूनानक एवं आदिग्रंथ के महत्व पर जोर देते हुए उन्होंने माँस खाने, शराब पीने, झूठ बोलने, धोखा देने व गलत बँटवारे का उपयोग करने पर रोक लगायी।
नामधारी आंदोलन
सन् 1857 में सिक्ख धर्म के इस आंदोलन की शुरुआत बाबा रामसिंह द्वारा की गई थी। बाबा रामसिंह कूका आंदोलन के प्रमुख बालक सिंह के अनुयायी थे, तो वहीं बालक सिंह के नेतृत्व में रहने वाले सभी लोग गुरू गोविन्द सिंह को अवतार मानते थे तथा अपनी मृत्यु से पहले बालकसिंह द्वारा रामसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया गया था। गाय के माँस उपयोग से नामधारियों को सख्त मनाही थी, क्योंकि पशुधन सुरक्षा उनका एक महत्वपूर्ण मुद्दा था।
अकाली आंदोलन
एक अन्य महत्वपूर्ण सिक्ख धर्म सुधार आंदोलन 1920 के दशक का अकाली आंदोलन था, जिसका मुख्य उद्देश्य सिक्ख गुरुद्वारों से भ्रष्ट एवं स्वार्थी महंतों को हटाकर गुरुद्वारों को शुद्ध करना था, तो वहीं इस आंदोलन के कारण सन् 1925 में अंग्रेजों को नया सिक्ख गुरूद्वारा विधेयक लागू करना पड़ा।
कूका आंदोलन
पंजाब में सिक्ख समाज में व्याप्त बुराईयों के विरुद्ध यह आंदोलन शुरू किया गया तथा लुधियाना के मैणी गाँव के बाबा बालकसिंह ने इसका नेतृत्व दिया।
आत्म गौरव आंदोलन
दलित वर्गों के उत्थान के लिए सन् 1925 में केरल में पेरियार के नाम से लोकप्रिय ई.वी. रामास्वामी नायकर ने इस आंदोलन की शुरुआत की, तो वहीं आंदोलन की शुरुआत ब्राह्मणों की सहायता के बिना विवाह कराने से हुई, परंतु बाद में इस आंदोलन के अंतर्गत निम्न जातियों द्वारा मंदिरों में प्रवेश, मनुस्मृति की प्रतियों को जलाना तथा नास्तिकता आदि कार्य भी सम्मिलित हो गये।
यह आंदोलन महाराष्ट्र: ज्योतिबा फूले द्वारा प्रारम्भ सत्य शोधक समाज से प्रेरित था, तो वहीं नायकर ने 1945 ई. में द्रविड़ कड़गम (द्रविड़ संघ) की स्थापना की तथा 1949 में इसका विभाजन हुआ और सी. अन्नादुरे के नेतृत्व में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) की स्थापना हुई। पेरियार हिन्दू वेद पुराणों, मनुस्मृति, रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता आदि के कट्टर आलोचक थे।
मानव धर्मसभा
19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में सूरत में दुर्गाराम मंदाराम, दादोबा पांडेरंग, दिनमणि शंकर, दामोदरदास आदि ने मिलकर जादू-टोने, झाड़-फूंक व जादू-मंत्र करने वालों एवं जाति-प्रथा का विरोध करने के लिए सन् 1844 में मानव धर्म सभा नामक संस्था की स्थापना की, परंतु 1846 ई. में दादोबा के बंबई जाने तथा 1852 ई. में दुर्गाराम मंघाराम के राजकोट चले जाने पर यह संस्था समाप्त हो गई थी।
परमहंस मण्डली
1849 ई. में बंबई में दादोबा पांडेरंग एवं उनके साथियों ने मिलकर रामकृष्ण जयकर की अध्यक्षता में परमहंस मण्डली की स्थापना की, तो वहीं मण्डली ने मानव धर्म सभा के सिद्धांतों का अनुसरण किया तथा जाति प्रथा, मूर्तिपूजा, रूढ़िवादी धार्मिक यज्ञों तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व को अस्वीकृत किया।
जस्टिस आंदोलन
दक्षिण भारत में पिछड़ी जातियों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करते हुए सी.एन. मुदालियर, डॉ.टी.एम. नायर और पी. प्रयागराज के नेतृत्व में 1913-16 ई. में इस आंदोलन की शुरुआत की गई और इनका संगठन जस्टिस पार्टी के नाम से जाना जाने लगा।
श्री नारायण गुरू (1854 ई. 1928 ई.)
केरल में इनके नेतृत्व में SNDP योगम् संस्था की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य था-एक जांति, एक धर्म एवं एक भगवान में विश्वास तो वहीं इस संस्था ने एझवा जाति के उत्थान के लिए पूरे केरल में बड़ी संख्या में स्कूल-कॉलेज खोले।
घासीदास
19वीं सदी में निम्न जातियों के अंदर जातीय भेदभाव के खिलाफ आंदोलन प्रारम्भ हुए, तो वहीं मध्य भारत में घासीदास द्वारा प्रारम्भ किया गया सतनामी आंदोलन ऐसा ही एक आंदोलन था। उन्होंने चमड़े का काम करने वाले समुदाय के लोगों को संगठित कर उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए यह आंदोलन किया।
पूर्वी बंगाल में श्री हरिदास ठाकुर के मतुआ पंथ में निम्न जाति माने जाने वाले चाण्डाल काश्तकारों के बीच एकता कायम कर उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए यह आंदोलन किया।
राजामुण्डी सोशल रिफॉर्म एसोसिएशन
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में दक्षिण भारत के सर्वप्रमुख समाज सुधारक वीरेशलिंगम पुंतुलू ने विधवा पुनर्विवाह के मुख्य उद्देश्य से आंध्रप्रदेश में सन् 1878 में इस एसोसिएशन की स्थापना की।
गोपाल हरिदेशमुख
पश्चिमी भारत के सबसे पहले धर्म व समाज सुधारक तथा लोकहितवादी के नाम से प्रसिद्ध गोपाल हरिदेशमुख ने हिन्दू धर्म के परम्परावादी विचारों, अंधविश्वासों व कुप्रथाओं का विरोध किया तथा धार्मिक एवं सामाजिक समानता का उपदेश दिया।
सिंह सभा आंदोलन
1873 ई. में पंजाब में सिक्खों में सामाजिक सुधार को बढ़ावा देने के लिए अमृतसर में सिंह सभाओं की स्थापना की गई, तो वहीं इसके बाद 1879 ई. में लाहौर में सिंह सभा का गठन किया गया था।
वेद समाज
सन् 1864 में वेद समाज की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य मद्रास में जातीय भेदभाव को समाप्त करना एवं विधवा विवाह व महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करना था।
तुलसीराम
इन्होंने 1861 ई. में आगरा में एकेश्वरवादी सिद्धांतों के प्रचार प्रसार हेतु राधास्वामी सत्संग की स्थापना की, तो वहीं तुलसीदास शिवदयाल साहब के नाम से प्रसिद्ध थे। सूरत शब्द योग इसका मंत्र है तो इनकी शिक्षाओं का संकलन दो पुस्तकों में किया गया (प्रत्येक का नाम सार वचन है) । यह पंथ सिर्फ गुरू अथवा उनके अवशेषों के स्थानों को मानते हैं। ।
गोपाल गणेश अगरकर
महाराष्ट्र के प्रमुख समाज सुधारक जिन्होंने 1884 ई. में बाल गंगाधर तिलक, वी.के. चिपलूंकर एवं माधवराव जोशी के सहयोग से पूना में दक्कन शिक्षा समाज की स्थापना की, तो वहीं इसी संस्था के प्रयासों से पूना में फर्ग्यूसन कॉलेज की स्थापना हुई थी।
एम. जी. रानाडे
महाराष्ट्र के प्रमुख समाज सुधाकर जिन्होंने 1870 ई. में प्रार्थना समाज में शामिल होकर तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराईयों व कुप्रथाओं, छुआछूत, स्त्रियों की दयनीय दशा, निम्न जातियों के साथ भेदभाव एवं दुर्व्यवहार आदि का कड़ा विरोध किया तथा ये श्री गोपाल गणेश अगरकर द्वारा 1884 ई. में स्थापित दक्कन शिक्षा समाज के प्रेरणास्त्रोत थे, तो वहीं 1887 ई. में इन्होंने इंडियन नेशनल सोशल कॉन्फ्रेंस की शुरुआत की तथा प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं विचारक गोपाल कृष्ण गोखले इनको अपना गुरू मानते थे।
रहनुमाई मजदयान सभा
बंबई के शिक्षित पारसियों के एक छोटे वर्ग ने 1851 ई. में इसकी स्थापना की जिसके लिए धन के.एन. कामा ने दिया, तो वहीं फरदुनजी नौरोजी इसके अध्यक्ष तथा एस.एस. बंगाली सचिव बने। इस सभा के सदस्यों ने सगाई विवाह तथा अंतिम संस्कार जैसे मोकों पर अनावश्यक उत्सवों की आलोचना की। साथ ही उन्होंने शिशु विवाह व ज्योतिष शास्त्र का भी विरोध किया।
ध्यातव्य रहे - सन् 1839 में विलियम स्लीमैन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया जिसने ठगी प्रथा को समाप्त किया तथा 1843 ई. में कानून बनाकर दास प्रथा को अवैध घोषित किया गया था, तो वहीं देव समाज की स्थापना 1887 ई. में स्वामी सत्यानन्द अग्निहोत्री ने लाहौर में की थी तथा 1880 के दशक के आते-आते भारतीय महिलायें विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने लग गई थीं।
औपनिवेशिक भारत में भारतीय विधवाओं के लिये 'शारदा सदन' स्कूल की स्थापना 1889 ई. में पंडिता रमाबाई ने मुम्बई में की थी, तो वहीं पूना की ताराबाई शिंदे ने स्त्री पुरुष तुलना नामक पुस्तक [REET-2012 | में पुरुषों व महिलाओं की स्थिति के बीच मौजूद सामाजिक अंतर का वर्णन किया।
बेगम रुकैया सखावत एक प्रभावशाली महिला थीं जिन्होंने लड़कियों के लिए कलकत्ता व पटना में स्कूल खोले, तो वहीं भोपाल की बेगमों ने भी अलीगढ़ में लड़कियों के लिए प्राथमिक स्कूल खोला। आल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस की स्थापना सन् 1927 में हुई, तो वहीं सन् 1932 में महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय हरिजन संघ की स्थापना की। ओरांव विद्रोह (1914-1919, छोटा नागपुर) का नेता जतरा भगत था। डिप्रेस्सड क्लासेस लीग (वंचित) की स्थापना बाबू जगजीवन राम द्वारा की गई थी। 'एस्सेस इन इंडियन इकोनॉमिक्स' नामक पत्रिका एम. जी. रानाडे ने आरम्भ की। बंगला गद्य का जनक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को कहा जाता है।
महार आंदोलन डॉ. भीमराव अम्बेडकर से संबंधित है। 'दिव्य जीवन संघ' के संस्थापक स्वामी शिवानंद थे। शारदा मणि रामकृष्ण परमहंस की पत्नी थी। 1839 ई. में तत्वबोधिनी सभा की स्थापना देवेन्द्र नाथ टैगोर ने की थी। महाराष्ट्र में आर. डी. कर्वे ने अपना सम्पूर्ण जीवन, समाज में परिवार नियोजन की शिक्षाओं को प्रदान करने में अर्पित कर दिया। शांति निकेतन की स्थापना रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 1901 ई. में की थी। अलीगढ़ में स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति हकीम अजमल खान थे। कित्तुर विद्रोह का नेतृत्व रानी चेन्नमा ने किया था।
सम्पूर्ण धार्मिक सामाजिक सुधार आंदोलन का विवरण
संस्था |
संस्थापक |
1.आत्मीय सभा (बंगाल) |
राजा राममोहन राय |
2. ब्रह्म समाज (1828, बंगाल) |
राजा राममोहन राय |
3.आदि ब्रह्म समाज (1865, कलकत्ता) |
देवेन्द्र नाथ टैगोर |
4. आदि ब्रह्म समाज (1878, कलकत्ता) |
विश्वनाथ शास्त्री |
5. हिन्दू कॉलेज (1817, कलकत्ता) |
डेविड हेयर |
6. ब्रह्म समाज ऑफ साउथ इंडिया (मद्रास) |
श्री घरालू नायडू |
7. तत्वबोधिनी (1840, बंगाल) |
देवेन्द्र नाथ टैगोर |
8. प्रार्थना समाज
(1867, बम्बई) |
महादेव गोविंद रानाडे, आत्मराम पांडुरंग |
9. आर्य समाज (1875, बम्बई) |
स्वामी दयानंद सरस्वती |
10. दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज (1889) |
हंसराज, लाला लाजपतराय |
11. गुरुकुल कांगड़ी (1902) |
स्वामी श्रद्धानंद, मुंशीराम लेखराम |
12, रामकृष्ण मठ (1897, वैलूर) |
स्वामी विवेकानंद |
13. थियोसोफिकल सोसायटी
(1875, न्यूयॉर्क) |
मैडम ब्लावत्स्की, कर्नल अल्कॉट |
14. भारत में थियोसोफिकल सोसायटी
(1882, अड्यार मद्रास |
मैडम ब्लावत्स्की, कर्नल अल्कॉट |
15. मुस्लिम एंग्लो ओरिएन्टल स्कूल (1875, अलीगढ़) |
सैयद अहमद खाँ |
16. सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज (1898, बनारस) |
ऐनी बेसेन्ट |
17. देवबंद स्कूल (1867, सहारनपुर) |
रशीद अहमद गंगोही, मुहम्मद कासिम नतोतबी |
18. अहमदिया आंदोलन (कादिया, पंजाब) |
गुलाम अहमद |
19. नामाधारी आंदोलन (पंजाब) |
रामसिंह |
20. राधास्वामी सत्संग
(1861, आगारा) |
तुलसीराम अथवा शिवदयाल साहिब |
21. रहनुमाई मजदयान समाज (1851, बम्बई) |
नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी, एस. एस. बंगाली |
22. यंग बंगाल आंदोलन (बंगाल) |
हेनरी विवियन डेरोजियो |
23. मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी साइंटिफिक इंडिया पैट्रियाटिक एसोसिएशन
(1864) |
सर सैयद अहमद खाँ |
24. धर्म सभा (1830) |
राधाकांत देव (यह रूढ़िवादी संस्था थी, सामाजिक धार्मिक आधार को यथास्थिति बनाये रखने के समर्थक) |
25. राजमुंदरी सामाजिक सुधार आंदोलन |
वीरेश लिंगम |
26. हिन्दू समाज सुधार संघ (1892, मद्रास) |
वीरेश लिंगम, आर. वेंकटरत्नम |
27.मद्रास हिन्दू संघ |
वीरेस लिंगम पुत्तलू (विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए) |
28.मानव धर्म सभा |
मांचाराम |
29. परमहंस मण्डली |
गोपाल हरिदेश मुख (लोकहितवादी के नाम से प्रसिद्ध पाश्चात्य शिक्षा व आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया) |
30.सत्यशोधक समाज |
ज्योतिराव फूले |
31.देव समाज (1830, लाहौर) |
शिवनारायण अग्निहोत्री |
32.सेवा सदन (1885) |
बहरामजी मालाबारी (सामाजिक सुधार व मानववादी संगठन) |
33.भारतीय सेवक समाज (1915) |
गोपाल कृष्ण गोखले |
34. विधवा आश्रम (1896, पूना) |
घोंदी केशव कर्जे |
35. वायकोम सत्याग्रह (केरल) |
नारायण गुरु, एन. कुमारन, माधवन |
36. गुरुवायूर सत्याग्रह (केरल) |
के. केलप्पण. |
37. अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण संघ
(1933) |
महात्मा गाँधी |
38. अखिल भारतीय दलित वर्ग (1924) |
बी. आर. अम्बेडकर |
39. डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन सोसायटी
(1906) |
बी. आर. शिन्दे |
40. आत्म सम्मान आंदोलन (दक्षिण) |
रामास्वामी नायकर |
41. जस्टिस पार्टी (दक्षिण) |
टी. एम. नायकर, मुदायिलयर |
42. प्रतिज्ञा आंदोलन (भारतीय सामाजिक सम्मेलन) |
1887 में रानाड़े व रघुनाथ राय ने वाल विवाह रोकने के लिए किया। |
43. समाज सेवा संघ (1911) |
एन. एम. जोशी |
44. इलाहाबाद सेवा समिति (1914,इलाहाबाद) |
हृदय नाथ कुंजरू |
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