नीति निदेशक तत्त्व (Directive Principles Of State Policy) - संविधान के भाग 4 में अनु. 36 से 51 तक राज्य के नीति निदेशक तत्त्व शामिल किए गये हैं। ये तत्त्व कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक हैं। ये वे 'आदर्श' हैं, जो समाज के आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण हेतु पूरे किए जाने चाहिए। हमारे संविधान निर्माताओं ने यह अपेक्षा की थी कि सरकार इन नीति निदेशक तत्त्वों को मद्देनजर रखते हुए अपनी नीतियों का निर्माण करेगी, जिससे देश का सम्पूर्ण विकास होगा।
राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (Directive Principles Of State Policy)
नीति निदेशक तत्त्व न्यायालय द्वारा प्रर्वतनीय एवं बाध्यकारी (वादयोग्य) नहीं हैं। इन्हें क्रियान्वित कराने हेतु न्यायालय की शरण नहीं ली जा सकती। नीति निदेशक तत्त्वों को निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (Directive Principles Of State Policy) |
- कुछ आदर्श, विशेष तौर से आर्थिक, जिनकी प्राप्ति हेतु राज्य को प्रयत्न करने चाहिए।
- राज्य की विधायिका एवं कार्यपालिका को कुछ निर्देश कि राज्य अपनी विधायी एवं कार्यपालिका संबंधी शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करे एवं
- नागरिकों के कुछ अधिकार, जो यद्यपि न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं परन्तु राज्य उन्हें अपनी नीतियों के द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयास करेगा।
राज्य का यह दायित्व होगा कि वह इन सभी नीति निदेशक तत्त्वों को लोक प्रशासन एवं नीतियों के निर्माण में लागू करे। ये सभी तत्त्व देश में आर्थिक एवं समाजिक प्रजातंत्र का मार्ग प्रशस्त करने वाले हैं, जिसकी प्राप्ति संविधान की उद्देशिका (Preamble) में लक्षित की गई है।
प्रमुख नीति निदेशक तत्त्व निम्न प्रकार हैं-
- सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो।
- धन एवं उत्पादन के संसाधनों को सर्वसाधारण के अहित में कुछ ही हाथों में संकेन्द्रण न हो।
- पुरुष एवं स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो।
- पुरुष एवं स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य एवं शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा उन्हें आर्थिक रूप से विवश होकर अपनी आयु एवं शक्ति के प्रतिकूल रोजगारों में न जाना पड़े।
- बालकों व अल्पव्यय व्यक्तियों की शोषण एवं नैतिक तथा आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।
समान न्याय एवं निःशुल्क विधिक सहायता (अनु. 39 क ) :-
राज्य सभी नागरिकों को समान विधिक न्याय सुलभ कराने एवं आर्थिक या अन्य निर्योग्यता के कारण कोई व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रह जाए के मद्देनजर उन्हें निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायेगा।
ग्राम पंचायतों का गठन (अनु. 40 ):
राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने हेतु कदम उठायेगा एवं उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बनाने हेतु आवश्यक प्राधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान करेगा।
काम, शिक्षा एवं लोक सहायता पाने का अधिकार (अनु. 41 ):
राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अंदर नागरिकों को काम पाने व शिक्षा पाने के, बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी एवं निःशक्तता आदि में लोक सहायता प्राप्त करने के अधिकार उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा।
संविधान में उल्लिखित उक्त सभी नीति निदेशक तत्व लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना एवं शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की प्राप्ति में सहायक है।
नीति निदेशक तत्त्व एंव मूल अधिकार
1971 तक सुप्रीम कोर्ट तक में यही मान्यता थी कि यदि नीति निदेशक तत्त्वों के क्रियान्वयन हेतु कोई कानून बनाया जाता है, जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो तो वह प्रभावी नहीं होगा, क्योंकि मूल अधिकार न्यायालय में प्रवर्तनीय हैं परन्तु नीति निदेशक तत्त्व नहीं। परन्तु 1971 में संविधान संशोधन द्वारा संविधान में अनु. 31 सी. जोड़कर इस मत को परिवर्तित कर दिया गया। अनु. 31सी में प्रावधान है कि नीति निदेशक तत्त्वों को क्रियान्वित करने हेतु यदि कोई कानून बनाया जाता है तो वह केवल इस आधार पर अवैध नहीं ठहराया जा सकेगा कि वह अनु. 14 एवं 19 में वर्णित मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।
इस प्रकार इस संशोधन द्वारा कुछ सीमा तक नीति निदेशक तत्त्वों को कुछ मूल अधिकारों पर वरीयता प्रदान की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने मिनर्वा मिल्स केस, 1980 में इसे सीमित करते हुए निर्णय दिया कि केवल अनु. 39 बी एवं सी के तहत् वर्णित नीति निदेशक तत्त्वों के क्रियान्वयन हेतु बनाई गई विधियों को मूल अधिकारों पर वरीयता रहेगी अन्य नीति निर्देशक तत्त्वों के संबंध में बनाई गई विधियाँ मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकती। यदि ऐसा होगा तो वह संविधान के मूल ढाँचे के विपरीत होगा।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मूल अधिकार एवं नीति निदेशक तत्त्व एक ही रथ के दो पहिए हैं जो देश में सामाजिक एवं आर्थिक प्रजातंत्र को वास्तविकता में परिणित कर सकते हैं।
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