1930 के दशक में आर्थर होम्स ने महाद्वीपीय विस्थापन के सम्बन्ध में 'संवहन धारा सिद्धान्त' प्रस्तुत किया। होम्स ने पृथ्वी की आन्तरिक संरचना को दो मण्डलों में विभक्त किया तथा निचले मण्डल को अधःस्तर माना हैं जो सीमा से बना है। अधःस्तर द्रवित अवस्था में है। यह सिद्धान्त शैलों की रेडियो ऐक्टिवता पर आधारित है। भूपटल की शैलों में यूरेनियम, थोरियम, पौटेशियम आदि रेडियो एक्टिव पदार्थ विखण्डित होकर ऊष्मा (ताप) पैदा करते हैं। अतः होम्स के अनुसार संवहन धारायें रेडियोएक्टिव तत्वों से उत्पन्न ताप भिन्नता से मैण्टल भाग में उत्पन्न होती हैं।
1. उठते स्तम्भ की धाराएँ (आरोही धाराएँ)- महाद्वीपों के नीचे ऊपर की ओर उठने वाली धाराएँ जहाँ भिन्न दिशा में प्रवाहित होती है वहाँ महाद्वीप पतले होकर खण्डित हो जाते हैं और अधः स्तर में एकत्रित ताप बाहर निकल जाता है। इससे संकरे व लम्बे उथले सागर की उत्पत्ति होती है।
2. गिरते स्तम्भ की धाराएँ (अवरोही धाराएँ )
दो पृथक भूखण्डों के नीचे पृथक संवहन धारा चलती है तो दोनों भूखण्डों के नीचे बाहर की ओर चलने वाली धाराओं की दिशा उथले सागर की ओर होती है। परिणामस्वरूप उनकी तलछट में मोड़ पड़ते है और पर्वतों की उत्पत्ति होती है। होम्स के अनुसार आल्प्स व हिमालय की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई है।
डब्ल्यू. जे. सोलास (1908) के मतानुसार वायुमण्डलीय दबाव की असमानता का परिणामस्वरूप महाद्वीप व महासागरों की उत्पत्ति हुई है। अधिक दबावयुक्त क्षेत्रों में महासागर और कम दबावयुक्त क्षेत्रों में महाद्वीपों को निर्माण हुआ।
1907 में लव नामक विद्वान ने लैपवर्थ की इस परिकल्पना में संशोधन प्रस्तुत किया। लव के अनुसार पृथ्वी की केन्द्रीय आकर्षण शक्ति के कारण उसके धरातलीय भाग में अनेक स्थानों पर उत्थान तथा धँसाव हुआ। धँसे भाग में जल एकत्रीकरण के फलस्वरूप महासागरों का निर्माण हो गया तथा ऊँचे उठे हुए भाग महाद्वीप बने ।
इस परिकल्पना का प्रतिपादन लोथियन ग्रीन द्वारा किया गया है। यह सिद्धांत संकुचन विचारधारा पर आधारित है। लोथियन ग्रीन का यह सिद्धांत ज्यामिति पर आधारित सिद्धांत है।
ग्रीन ने अपनी परिकल्पना का प्रतिपादन सागर और स्थल के वर्तमान वितरण को देखते हुए किया था। विभिन्न प्रयोगों के बाद ग्रीन ने यह निष्कर्ष निकाला कि यदि एक गोले (स्फीयर) के धरातल पर चारों ओर से दबाव डाला जाये तो वह चतुष्फलक के आकार में परिवर्तित हो जाता है। ठीक इसी प्रकार शीतल होने और संकुचन के क्रम में पृथ्वी भी चतुष्फलक के रूप में परिवर्तित हो गई। चतुष्फलक इस रूप में है कि इसका उत्तरी भाग चपटा तथा शेष तीन भाग दक्षिण में एक बिन्दु पर मिलते हैं। उत्तरी समतल भाग पर उत्तरी ध्रुव सागर है तथा अन्य तीन चपटे भाग पर अन्ध एवं हिन्द महासागर है।
ऊपर उठे हुए चारों कोनो पर क्रमशः उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, यूरोप व अफ्रीका, एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया और अण्टार्कटिका महाद्वीप स्थित हैं।
पक्ष में मत-
ग्रेगरी चतुष्फलकीय परिकल्पना के प्रधान समर्थक है उन्होंने इसमें कुछ संशोधन कर उसे नये रूप में यह प्रस्तुत किया कि संकुचन के कारण पृथ्वी में सिकुड़न आने में चतुष्फलक के लम्बवत् किनारे स्थिर रहेंगे, लेकिन ऊपर वाली सपाट सतह को घेरने वाले तीन किनारे परिवर्तनशील रहेंगे। यह परिवर्तन कभी उत्तर और कभी दक्षिण दिशा में खिसकाव या विस्तार के रूप में हुआ, जिसके कारण महाद्वीपों और महासागरों के आकार में क्रमश: परिवर्तन होता रहा।
आलोचनाएँ ये निम्न है
- एक शीर्ष बिंदु पर परिभ्रमण करती हुई चतुष्फलक के रूप में पृथ्वी का संतुलन कदापि स्थापित नहीं हो सकता है।
- दूसरे पृथ्वी अपनी धूरी पर इतनी तीव्रगति से परिभ्रमण करती है कि गोल भूमंडल चतुष्फलक के रूप में सिकुड़कर नहीं बदल सकता है।
जीन्स का सिद्धांत-
जीन्स के अनुसार घूर्णन की स्थिरता को प्राप्त करने के क्रम में पृथ्वी का आकार नाशपातीनुमा हो गया तथा ऊपर उठे हुए भागों द्वारा महाद्वीप एवं दबे हुए भागों द्वारा महासागर का निर्माण हुआ।
टेलर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना-
महाद्वीपीय विस्थापन की सम्भावना फ्रांसीसी विद्वान स्नाइडर (1858) द्वारा प्रकट की गयी थी। महाद्वीपों के प्रवाहमान होने की धारणा को 'महाद्वीपो का विस्थापन सिद्धान्त' कहते हैं। टेलर ने महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त का प्रतिपादन 1908 में किया था। एफ.बी. टेलर की इस परिकल्पना का मुख्य उद्देश्य टर्शियरी युग के मोड़दार पर्वतों की उत्पति की व्याख्या करना था। टेलर ने अपने सिद्धान्त का शुभारंभ क्रोटेशियस युग से किया। टेलर ने महाद्वीपों का प्रवाह ज्वारीय बल के कारण मुख्य रूप से विषुवत रेखा की ओर बताया है। हिमालय, काकेशस तथा आल्पस पर्वत श्रेणियों का निर्माण लारेशिया तथा गोंडवाना लैंड ध्रुवों की तरफ से विषुवत रेखा की ओर प्रवाहित होने के कारण हुआ। महाद्वीपों के इस प्रका प्रवाह से विभिन्न महासागरों, महाद्वीपों तथा विभिन्न पर्वतों के वर्तमान रूप की प्राप्ति हुई।
चेम्बरलीन का मत-
चेम्बरलीन के मतानुसार ब्रह्माण्डीय पदार्थों के असमान वितरण के परिणामस्वरूप महाद्वीप एवं महासागरों की उत्पत्ति हुई है। उन्होंने 1904 में पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में 'ग्रहण सिद्धान्त' दिया जिसमें ग्रहाणुओं के एकत्रित होने से ग्रहों की उत्पत्ति बताई। जिसके परिणामस्वरू घनीभूत कणों के गिरने और पृथ्वी के केन्द्रीय दबाव के कारण आन्तरिक भागों के तापक्रम में वृद्धि हुई घनीभूत कण इधर-उधर पिघलते हुए गर्म कण संवहन धाराओं के प्रभाव से ऊपर सतह की आरे आने लगे और उन स्थानों पर पिछली हुई अवस्था होने के कारण विशाल गर्तों का निर्माण हुआ जो महासागर कहलाए तथा गृहाणुओं के अधिक मात्रा में पृथ्वी पर जमने के स्थानों पर घनीभूत एवं ठण्डी अवस्था में आने पर महाद्वीपों की उत्पत्ति हुई।
वेगनर का महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त-
अल्फ्रेड वेगनर मे जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन की समस्या के समाधान के क्रम में यह सिद्धांत 1912 में प्रस्तुत किया था।
वेगनर ने स्थल के स्थानान्तरण एवं प्रवाह में विश्वास किया है। वेगनर ने 20 करोड़ वर्ष पूर्व कार्बोनीफेरस युग में विश्व के सभी स्थल भागों को एक विस्तृत स्थलखण्ड माना जिसे पैंजिया कहा। पंजिया का अर्थ है सम्पूर्ण पृथ्वी। इस पर छोटे-छोटे आन्तरिक सागरों का विस्तार था। वेगनर के अनुसार वर्तमान समय के सभी महाद्वीप पंजिया के रूप में जुड़े हुए थे। बैगनर ने पेंजिया को 'सुपर महाद्वीप' कहा है। एक विशाल जल भाग जिसे इन्होंने पैथालासा कहा, जिसका अर्थ है जल ही जल पैन्जिया के मध्य में पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत टेथिस सागर था। कार्बोनिफेरस युग से पेंजिया का विभाजन दो बड़े महाद्वीपीय पिंडों लारेशिया एवं गोंडवाना लैंड में हुआ। पंजिया के उत्तरी भाग को लारेशिया कहा गया जिसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया के भाग सम्मिलित थे। पंजिया का दक्षिणी भाग गोंडवानालैंड था जिसके अन्तर्गत दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अन्टार्कटिका सम्मिलित थे। पैंजिया में तीन परतें सियाल, सीमा, निफे थीं। सियाल (महाद्वीपीय भाग) बिना किसी रुकावट के पानी पर तैर रही थी बाद में ये दोनों भी अनेक छोटे हिस्सों में बंट गये, जो आज के महाद्वीप के रूप हैं और अन्ततः वर्तमान महाद्वीप एवं महासागरों का रूप प्राप्त हुआ।
सिद्धान्त के पक्ष में प्रमाण-
- दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाओं में समानता
- महासागरों के पार चट्टानों की आयु में समानता
- ग्रीनलैण्ड का निरन्तर 20 मीटर प्रतिवर्ष की गति से पश्चिम की ओर सरकना।
- हिमानीकरण के प्रमाण
- स्थलखंडों के विपरीत किनारों पर पाये जाने वाले जीवावशेष व वनस्पति अवशेषों में समानता।
- घाना तट पर सोने के विस्तृत निक्षेपों की उपस्थिति व उद्गम चट्टानों की अनुपस्थिति एक आश्चर्यजनक तथ्य है।
आलोचनाएँ
- ज्वारीय बल और गुरुत्वाकर्षण बल महाद्वीपों को विस्थापित नहीं कर सकते।
- तटरेखाएँ बदलती रही है।
- अंघ महासागर के दोनों तट पूर्वतया नहीं मिलाए जा सकते।
- महाद्वीपों के प्रवाह की दिशा तथा तिथियों अज्ञात है।
प्लेट विर्वनिकी सिद्धान्त (Plate Tectonic Theory)-
स्थलीय दृढ़ भूखण्ड को प्लेट कहा जाता है। इनकी औसत मोटाई 33 किमी. है इन प्लेटों के स्वभाव तथा प्रवाह से संबंधित अध्ययन को प्लेट विवर्तनिकी कहते हैं। स्थलमंडल को आंतरिक रूप से दृढ़ प्लेट का बना हुआ माना गया है जोकि विभिन्न प्रारूपों में गतिशील तथा प्रवाहित होते रहते हैं। ये प्लेट अपने ऊपर स्थित महाद्वीप तथा महासागरीय भागों को अपने प्रवाह के साथ ही स्थानान्तरित करते हैं।
इन्हीं तथ्यों के आधार पर इस संकल्पना का प्रतिपादन प्रोफेसर हैरी हेस द्वारा 1960 में किया गया। हेस के अनुसार महाद्वीप तथा महासागर विभिन्न प्लेट के ऊपर टिके है। जब प्रवाहित होते हैं तो उनके साथ महाद्वीप तथा सागरीय तली भी विस्थापित हो जाती हैं।पैंजिया के विभिन्न प्लेटों के स्थानांतरण तथा प्रवाह के कारण ही वर्तमान महाद्वीपों तथा महासागरों का रूप प्राप्त हुआ है। कार्बोनिफेरस युग से इनके प्रारूपों में भविष्य में भी परिवर्तन हो सकता है। विल्सन, मॉर्गन, मैकेंजी, ओलिवर, पार्कर इत्यादि विद्वानों ने 1967 ई. में इसके पक्ष में प्रमाण उपलब्ध कराते हुए इसके संवर्धन में योगदान दिया। यह सिद्धांत वर्तमान में महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति का सर्वमान्य सिद्धांत है।
प्लेट संकल्पना का प्रादुर्भाव दो तथ्यों के आधार पर हुआ:-
- महाद्वीपीय प्रवाह को संकल्पना
- सागर तली के प्रसार की संकल्पना।
महाद्वीपीय निर्माण के प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार वर्तमान समय में पृथ्वी की सतह पर 7 बड़ी प्लेटें हैं-
1. यूरेशियन प्लेट-
यूरेशियन प्लेट को अधिकतर महाद्वीपीय स्थलमण्डल के रूप में जाना जाता है। यह प्लेट पूर्व और की तरफ सागरीय स्थलमण्डल से घिरी हुई है। इसकी गति की दिशा पश्चिम से पूर्व की तरफ है।
2. अंटार्कटिक प्लेट-
यह प्लेट अंटार्कटिका तथा इसको घेरे हुये महासागर में विस्तृत है।
3. उत्तरी अमेरिकी प्लेट-
इस प्लेट के अर्न्तगत पश्चिमी अंध महासागरीय तल आता है तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसकी सीमा को निर्धारित करते हैं। यह प्लेट पूर्व से पश्चिम की तरफ बढ़ती है।
4. दक्षिणी अमेरिकी प्लेट-
इसमें पश्चिमी अटलाण्टिक तल सम्मिलित है और उत्तरी अमेरिकी प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसे अलग करते है।
5. प्रशांत प्लेट-
यह प्लेट प्रशांत महासागरीय घाटी को घेरे हुये हैं इसकी गति की दिशा उत्तर-पश्चिम है।
6. अफ्रीकी प्लेट-
इस प्लेट में संपूर्ण अफ्रीकी महाद्वीप तथा पूर्वी अटलाण्टिक तल सम्मिलित है। इस प्लेट को की दिशा दक्षिण-पश्चिम से पूर्व की तरफ है।
7. भारतीय प्लेट-
भारतीय प्लेट के अन्तर्गत प्रायद्वीप भारत तथा आस्ट्रेलिया महाद्वीपीय भाग शामिल है। हिमालय पर्वत श्रेणियों के साथ-साथ पाये जाने वाला प्रविष्ठन क्षेत्र इसकी उत्तरी सीमा को निर्धारित करता है जो महाद्वीपीय महाद्वीपीय अभिसरण के रूप में है। यह प्लेट पूर्व में म्यांमार के अराकान योमा पर्वत से होते हुए एक चाप के रूप में जावा खाई तक विस्तृत है। इसकी पूर्वी सीमा ऑस्ट्रेलिया के पूर्व में दक्षिणी-पश्चिमी प्रशान्त महासागर में महासागरीय कटक के रूप में विस्तृत है। इसकी पश्चिमी पाकिस्तान की किरथर श्रेणियों से होती हुई मकरान तट के साथ-साथ दक्षिण पूर्वी चागोस द्वीप समूह के साथ-साथ लाल सागर द्रोणी में जाकर मिल जाती है।
इन प्लेटों के किनारे सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं जिनके सहारे विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। प्लेट किनारे तीन प्रकार के होते हैं:- 1. विनाशी प्लेट किनारा, 2. संरक्षी प्लेट किनारा, 3. रचनात्मक प्लेट किनारा।
रचनात्मक प्लेट किनारों के सहारे दो प्लेट एक दूसरे से अपसरित होती हैं तथा मध्य महासागरीय कटक का निर्माण करती हैं इसके सहारे ही महासागरीय क्षेत्र का विस्तार होता है। विनाशी प्लेट किनारे के सहारे पर भारी प्लेट अपेक्षाकृत हल्की प्लेट के नीचे क्षेपित होती हैं, तथा इस स्थान पर महाद्वीपीय चाप पर्वत श्रृंखला तथा ज्वालामुखीय द्वीप आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
प्लेटों के खिसकने से क्रमशः महासागरों के खुलने तथा बन्द होने की प्रक्रिया में महाद्वीपों तथा महासागरों का रूप परिवर्तित होता रहता है।
छोटी प्लेटें : - छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं -
- कोकोस प्लेट : - यह प्लेट मध्यवर्ती अमेरिका और प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।
- नाजका प्लेट : - यह प्लेट दक्षिणी अमेरिका व प्रशान्त महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।
- अरेबियन प्लेट :- इस प्लेट के अन्तर्गत अधिकांश अरब प्रायद्वीप का भूभाग शामिल है।
- फिलीपीन प्लेट:- यह प्लेट एशिया महाद्वीप और प्रशान्त महासागर प्लेट के बीच स्थित है।
- कैरोलिन प्लेट :- यह प्लेट न्यूगिनी के उत्तर में फिलीपियन व इण्डियन प्लेट के मध्य में स्थित है।
- फ्यूजी प्लेट :- यह प्लेट आस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्व में स्थित है
प्लेट सीमाओं के प्रकार
- अपसारी सीमा :- जब दो प्लेट एक-दूसरे से विपरीत दिशा में अलग-अलग हटती हैं और नवीन पर्पटी का निर्माण होता है, तो उन्हें अपसारी प्लेट कहा जाता है।
- अभिसरण सीमा :- जब एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती है और जहाँ भूपर्पटी नष्ट होती है, वह अभिसरण सीमा होती है।
- रूपान्तर सीमा :- जहाँ न तो नवीन पर्पटी का निर्माण होता है और न ही पर्पटी का विनाश होता है, वह रूपान्तरण सीमा होती है।
महाद्वीपीय प्रवाह व प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त में अन्तर
महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त
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प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत
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1.महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त 1912
में अल्फ्रेड वेगनर द्वारा प्रतिपादित किया गया।
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1. प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त 1960
में हैरी हेस द्वारा प्रतिपादित किया गया।
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2.यह सिद्धान्त महाद्वीप एवं महासागरों की उत्पत्ति व वितरण से सम्बन्धित था।
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2. प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त का संबंध विभिन्न भूगर्भिक घटनाओं से है।
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3.महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान समय के सभी महाद्वीप एक विस्तृत भूखण्ड पैंजिया के मुख्य और कुछ छोटी प्लेटों में विभक्त है। भाग है पैंजिया में विखंडन हुआ। इसका उत्तरी भाग लारेंशिया तथा दक्षिणी भाग गोंडवानालैण्ड कहलाया।
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3. इस सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी का स्थलमंडल सात मुख्य और कुछ प्लेटों में विभक्त है।
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4.इस सिद्धान्त के अनुसार महाद्वीपों का प्रवाह ध्रुवीय फ्लॉइंग बल और ज्वारीय बलों के आधार पर हुआ।
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4. इस सिद्धान्त के अनुसार सभी प्लेटें पूरे इतिहास काल से गतिमान हैं।
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5. इस सिद्धांत के अनुसार स्थलखंड सियाल के बने हैं और ये अधिक घनत्व वाली सीमा परत पर तैर रहे हैं।
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5. इस सिद्धान्त के अनुसार एक प्लेट विवर्तनिकी प्लेट, जो महाद्वीपीय स्थलखंडों से मिलकर बनी है, एक दृढ़ इकाई के रूप में सदैव क्षैतिज अवस्था में गतिशील है।
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6.इस सिद्धान्त के अनुसार आरम्भिक काल में केवल एक ही स्थलखंड पेंजिया था, जिसके चारों तरफ एक महासागर पैंथालासा स्थित था।
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6. इस सिद्धान्त के अनुसार महाद्वीप व महासागर अनियमित एवं भिन्न-भिन्न आकार वाली प्लेटों पर स्थित हैं। तथा ये प्लेटें गतिशील हैं। इस कारण अधिकतर भाग पर ये प्लेटें महासागरीय व महाद्वीपीय प्लेट कहलाती हैं।
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