भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश प्रभाव - सत्रहवीं शताब्दी में भारत विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक देश था, यूरोपिय व्यापारी भारत से सूती व रेशमी वस्त्र, मसाले, नील अफीम, चीनी आदि का निर्यात करते थे। बदले में सोने-चाँदी ले जाने के कारण भारत को उस समय 'सोने की चिड़िया' कहा जाता था लेकिन 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्लासी व बक्सर युद्ध के बाद अंग्रेज बंगाल के मालिक बन गये व 18वीं शताब्दी के अन्त तक भारतीय अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के शिकंजे में फँस गयी।
Bhartiya Arthvyavastha par British Prabhav
कम्पनी ने अपने प्रयासों से 1717 ई. में मुगल बादशाह फर्रूखशियर से 3000 रुपये की वार्षिक चुंगी (महसूल) के बदले बंगाल में मुक्त व्यापार दस्तक (शाही) फरमान प्राप्त कर लिया [ REET-2011]। दस्तक शुल्क मुक्त व्यापार के प्रयोजन के लिए यूरोपीय व्यापारियों को जारी किया जाने वाला आज्ञापत्र था जिसमें तय किया गया कि केवल कम्पनी ही बंगाल, बिहार, उड़ीसा में निःशुल्क व्यापार कर सकती है।
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इस तरह कम्पनी को हिन्दुस्तान में अपना व्यापार बढ़ाने का मौका मिल गया। 1720 ई. में भारतीय रेशमी व छपे हुए वस्त्रों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के कारण भारत कच्चे माल का निर्यातक व तैयार माल का ग्राहक बन गया। जिससे स्थानीय धंधे चौपट हो गये। 1757-72 ई. का काल 'औपनिवेशिक लूट का काल' कहा जाता है।
इस समय ब्रिटिश कम्पनी ने बंगाल साम्राज्य स्थापित कर लिया और यहीं से प्राप्त किये हुए धन से व्यापार करना प्रारम्भ किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया। यहाँ के सभी उद्योग-धंधों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया तथा 1780 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज के समय 'नमक व अफीम' के उत्पादन का एकाधिकार कंपनी को मिला। 1788 ई. ब्रिटेन द्वारा आयात किये गये नील में भारतीय नील का हिस्सा केवल लगभग 30 प्रतिशत था, तो वहीं 1810 में ब्रिटेन द्वारा आयात किये गये नील में भारतीय नील का हिस्सा 95% हो चुका था।
1764 में जॉन के. ने स्पिनिंग जैनी का आविष्कार किया तथा 1786 ई. में रिचर्ड आर्कराइट ने वाष्प इंजन का आविष्कार किया। बम्बई और कलकत्ता 1780 ई. के दशक से व्यापारिक बंदरगाहों के रूप में विकसित होने लगे थे। यह पुरानी व्यापारिक व्यवस्था के पतन और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के विकास का समय था। मछलीपट्टनम 17वीं सदी में एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में विकसित हुआ।
18वीं सदी के आखिर में जब व्यापार बंबई, मद्रास और कलकत्ता के नये ब्रिटिश बंदरगाहों पर केन्द्रित होने लगा तो उसका महत्व घट गया।
1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी के 'व्यापारिक एकाधिकार' को समाप्त कर दिया, परंतु चाय व चीनी के व्यापार की अनुमति दी।
सन् 1800 से लेकर 1850 ई. तक का समय अनौद्योगिकरण का काल कहलाता है। इसी समय इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति विकसित हो रही थी, जबकि परम्परागत उद्योग-धंधे तथा शिल्प कला की क्षति हो रही थी। ब्रिटिश प्रभाव के कारण भारत को सर्वाधिक क्षति सूती वस्त्र उद्योग में हुई।
1833 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी की सभी वाणिज्यिक गतिविधियों को प्रतिबंधित कर दिया गया, जिसमें भारतीय उद्योग व हस्तशिल्प के पूर्णतः नष्ट हो जाने से कुछ भारतीय पूँजीपतियों ने आधुनिक उद्योगों में पूँजी लगाई। सूती वस्त्र उद्योग पहला उद्योग था, जिसमें भारतीयों द्वारा पूँजी लगाई गई। 'कावसजी नानाभाई' ने 1853 ई. में मुम्बई में सर्वप्रथम सूती वस्त्र मिल लगाई, सन् 1800 के आसपास भारतीय निर्यात में सूती कपड़े का प्रतिशत 30 था जो 1870 ई. तक घटकर 3 प्रतिशत रह गया, तो वहीं भारत की पहली जूट (पटसन) मिल 1855 ई. में बंगाल में रिशरा नामक स्थान पर स्थापित हुई।
भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा रेलवे का निर्माण लाभ की गारण्टी व्यवस्था पर आधारित था, तो वहीं भारत में प्रथम रेलवे लाइन लॉर्ड डलहौजी के काल में 1853 ई. में बम्बई से ठाणे के बीच बिछायी गई तथा इस पर पहली रेलगाड़ी 16 अप्रैल, 1853 ई. को चली। लार्ड कर्जन के समय भारत में रेलवे लाइन का सर्वाधिक विस्तार हुआ, तो भारत में रेल लाईन को कार्ल मार्क्स ने आधुनिक युग का अग्रदूत कहा है।
इसी समय राष्ट्रवादी विचारक दादाभाई नौरोजी ने धन के निष्कासन का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार भारत का अधिकतम धन कई स्रोतों के जरिए बाहर जा रहा था और यहाँ गरीबी एवं बेगारी बढ़ रही थी। दादाभाई नौरोजी प्रतिव्यक्ति आय का अनुमान लगाने वाले प्रथम राष्ट्रवादी नेता थे। दादाभाई के अनुसार 1867-68 ई. में प्रतिव्यक्ति आय 22 रु. थी । राष्ट्रीय आय का प्रथम वैज्ञानिक आंकलन 'वी.के.आर.वी. राव' ने किया। उनके अनुसार 1931-32 ई. में प्रति व्यक्ति आय 62 रु. थी। 1860 के बाद अंग्रेजों द्वारा भारत में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की शुरुआत हुई तो लॉर्ड हार्डिंग ने 1916 ई. में सर थामस हॉलैण्ड की अध्यक्षता में भारतीय औद्योगिक आयोग की स्थापना की। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में चूंकि भारत में ब्रिटेन की औद्योगिक आवश्यकताओं को ही ध्यान में रखकर फसलें उगायी जाती थी, तो खाद्यान्नों की कमी के कारण 1866-67 ई. में ओड़िशा में पड़े भयंकर अकाल को 19वीं सदी के अकालों में आपदा का महासागर कहते हैं।
भारत सरकार का काफी बड़ा धन इंग्लैण्ड में कार्यरत कर्मचारियों, जो राजनैतिक, प्रशासनिक तथा व्यावसायिक कामों को देखते थे, के ऊपर खर्च होता था जिसे होम चार्ज कहते थे। भारत में पहला चीनी कारखाना 1909 ई. में खोला गया, तो पहली बार आधुनिक इस्पात तैयार करने का प्रयास 1830 ई. में मद्रास के दक्षिण में स्थित अरकाट जिले में जोशिया मार्शल हीथ द्वारा किया गया। लौह उद्योग क्षेत्र में अगला प्रयास 1907 ई. में जमशेदजी नौशेरवानजी टाटा ने किया इनके प्रयत्नों द्वारा टाटा आयरन एण्ड स्टीलं कम्पनी की स्थापना की गई। 19वीं सदी में ब्रिटेन के औद्योगीकरण के साथ एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह परिवर्तन था भारत ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों के लिए बड़ा बाजार बन गया | CTET-2014]
धन निष्कासन का सिद्धान्त
धन के निष्कासन से तात्पर्य, भारत से इंग्लैण्ड जाने वाले उस धन से था, जिसके बदले भारत को पर्याप्त आर्थिक व व्यापारिक प्रतिफल नहीं मिलता था। धन के निष्कासन का सिद्धान्त सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने अपने लेख England's Debt to India' में दिया। यह पेपर उन्होंने 2 मई, 1867 को लंदन में आयोजित ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की बैठक में पहली बार पढ़ा। प्रसिद्ध राष्ट्रवादी व अर्थशास्त्री रमेशचन्द्र दत्त ने धन के निष्कासन को एक 'बहते हुए घाव' की तरह बताया। इनकी पुस्तक 'इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया' भारत के आर्थिक इतिहास पर पहली प्रसिद्ध पुस्तक मानी जाती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कलकत्ता अधिवेशन (1896 ई.) में सर्वप्रथम धन के निष्कासन के सिद्धान्त को स्वीकार किया।
ब्रिटिश शासन में भू-राजस्व व्यवस्था
वारेन हेस्टिंग्ज ने 1772 ई. में बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था समाप्त कर 'इजारेदारी प्रथा' या 'ठेकेदारी प्रथा' की शुरूआत की। इस प्रथा में भू-राजस्व की वसूली का कार्य सबसे अधिक बोली लगाने वाले को ठेके पर दिया जाता था। वारेन हेस्टिंग्ज ने 1772 ई. में वार्षिक बंदोबस्त के स्थान पर 5 वर्ष का बंदोबस्त किया। जॉन शोर ने जमींदारों को भूमि का स्वामी मानने पर बल दिया, जबकि जेम्स ग्रान्ट जमीदारों को भू-स्वामी मानने के विरुद्ध था। कार्नवालिस ने जॉन शोर के विचार को स्वीकृति प्रदान की। अन्ततः जॉन शोर स्थायी बंदोबस्त से जुड़े हुए थे। जॉन शोर यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए चाहता था। परन्तु कार्नवालिस स्थायी बंदोबस्त का पक्षधर था। वटिश काल में 3 प्रकार की भू-राजस्व प्रणाली प्रचलित था-
स्थायी बंदोबस्त
1786 ई. में लॉर्ड कार्नवालिस |HTET-2014, UPTET (2013) गवर्नर जनरल बनकर बंगाल आया। कम्पनी द्वारा तब तक भूमि बंदोबस्त के अनेक प्रयोग किये जा चुके थे, तो वहीं कार्नवालिस मे लगान की नई व्यवस्था प्रारम्भ की जिसके तहत् लगान वसूल करने का अधिकार नीलामी के माध्यम से जमींदारों को दिया गया तथा 1790 ई. में 10 वर्षीय लगान व्यवस्था प्रारम्भ की गई, जिसे 1793 स्थायी बंदोबस्त या इजारेद्वारी के रूप में परिवर्तित कर दिया गया [CTET-2014] । स्थायी बंदोबस्त के तहत जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया। इसे जागीरदारी, मालगुजारी व बिस्वेदारी आदि नामों से भी जाना जाता है तथा इस व्यवस्था में निर्धारित तिथि तक भू-राजस्व कंपनी के पास जमा न कराने पर सूर्यास्त कानून द्वारा जमींदारी जब्त कर नीलाम कर दी जाती थी। जमींदारों को भूमि का मालिक बनाने से किसान पूरी तरह जमींदारों की दया पर निर्भर हो गये। यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 19% भाग पर तथा बंगाल, बिहार, उड़ीसा, वाराणसी और कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्र में लागू की। रमेशचन्द्र दत्त ने स्थायी भूमि बंदोबस्त की अत्यधिक प्रशंसा की है। उनके अनुसार, यह भूमि व्यवस्था ब्रिटिश जाति द्वारा किये गये कार्यों में सर्वाधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण व सफलतम कार्य है। स्थायी बंदोबस्त के कारण कृषि में वाणिज्यिकरण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला क्योंकि इसमें लगान के नकद भुगतान पर अधिक बल दिया जाता था, फलस्वरूप कृषक पारम्परिक खाद्यान फसलों के स्थान पर नकदी फसलें जैसे-नील, कपास, रेशम, तिलहन, सुपारी आदि को अधिक महत्व देने लगे, तो वहीं स्थायी बंदोबस्त से ऊपरी स्तर पर सामंतवाद एवं निचले स्तर पर दास प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला।
रैय्यतवाड़ी व्यवस्था
रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का जन्मदाता 'थॉमस मूनरो व कैप्टन रीड' को माना जाता है। सर्वप्रथम कैप्टन रीड ने रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को 1792 ई. में तमिलनाडु के बारामहल जिले में लागू किया। 1820 ई. में मद्रास के गवर्नर थॉमस मैनरों ने इसे मद्रास के शेष भागों में व एलफिसंटन बॉम्बे प्रेसिडेन्सी (1819-1827) लागू किया। बम्बई में नई रेय्यवाड़ी व्यवस्था विनगेट ने लागू की। इसके अंतर्गत ब्रिटिश भारत का 51% हिस्सा शामिल था। रैयतवाड़ी प्रभाव में कम्पनी द्वारा लगान समझौता जमींदारों से न करके भूमि के वास्तविक स्वामी किसानों के साथ किया गया था, तो वहीं इस प्रथा में बंजर भूमि रैयत के पास नहीं छोड़ी गई बल्कि सरकार के नियंत्रण में रही।
महालवाड़ी व्यवस्था
इस व्यवस्था में सम्पूर्ण ग्राम अथवा महाल को भू-राजस्व की इकाई माना जाता था तथा गाँव के लोग सम्मिलित रूप से भू-राजस्व देने के लिए उत्तरदायी होते थे। गाँव के लोग अपने मुखिया द्वारा निर्धारित समय के अन्दर लगान अदा करते थे [CTET-2014] । महालवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम आगरा तथा अवध के कुछ क्षेत्रों में लागू की गई। इस व्यवस्था में ब्रिटिश भारत का 30% हिस्सा शामिल था, इसे 'अवध' में 'ताल्लुकदारी व्यवस्था' और मध्य प्रान्त में 'मालगुजारी व्यवस्था' भी कहते हैं। महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में 'होल्ट मैकेन्जी' ने दिया, जिसने पश्चिमोत्तर प्रान्त में (पंजाब - उत्तर प्रदेश) महालवाड़ी व्यवस्था लागू की । इसे थॉक्सोनियन बंदोबस्त भी कहा जाता है, क्योंकि जेम्स थॉसन ने उत्तरी पश्चिमी प्रांत में इस व्यवस्था को लागू किया। उत्तरी भारत में भूमिकर व्यवस्था के प्रवर्तक 'आर. मार्टिन बर्ड' थे। 1833 ई. में महालवाड़ी व्यवस्था शुरू की। यह व्यवस्था 30 वर्ष के लिए लागू की जाती थी।
ददनी प्रथा के अंतर्गत ब्रिटिश व्यापारी भारतीय उत्पादकों, कारीगरों एवं शिल्पियों को अग्रिम संविदा (पेशगी) के रूप में रुपये दे देते थे तथा कमियौंटी प्रथा बिहार एवं उड़ीसा में प्रचलित, जिसके अंतर्गत कृषि दास के रूप में खेती करने वाले कमियां जाति के लोग अपने मालिकों द्वारा प्राप्त ऋण पर दी जाने वाली ब्याज की राशि के बदले में जीवनभर उनकी सेवा करते थे, तो वहीं तिनकठिया प्रथा के अंतर्गत चम्पारन (बिहार) के किसानों को अंग्रेज बागान मालिकों के अनुबंध पर अपनी जमीन के करीब 3/20 भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य होता था तथा दुबला हाली प्रथा भारत के पश्चिमी क्षेत्र मुख्यतः सूरत में प्रचलित, जिसके अंतर्गत दुबला हाली भूदास अपने मालिकों को ही अपनी सम्पत्ति का और स्वयं का संरक्षक मानते थे ।
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