मानसूनी पवनें ग्रीष्म ऋतु में समुद्र से स्थल की ओर बहती है क्योंकि गर्मियों में सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में सीधा चमकता है। अतः सूर्य की सीधी किरणें पड़ने के कारण 'तिब्बत का पठार' अत्यन्त गर्म होकर वहाँ निम्न वायु दाब का केन्द्र (इस समय उत्तर-पश्चिमी भारत व पाकिस्तान में भी न्यून वायुदाब' की स्थिति बनती है।) बन जाता है जबकि दक्षिण गोलार्द्ध में स्थित हिन्द महासागर में सूर्य की किरणों के तिरछा पड़ने के कारण हिन्द महासागर में उच्च वायुदाब का केन्द्र बनता है और नियम के अनुसार हवा उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलने लगती है, इसी कारण हिन्द महासागर से हवाएँ आर्द्रता लेते हुए तिब्बत के पठार की ओर चलने लगती है। दक्षिण पश्चिम दिशा से चलने के कारण इसे 'दक्षिण-पश्चिम का मानसून' भी कहते हैं। ये पवनें मार्ग में पड़ने वाले बादलों को धकेलकर भारत में प्रवेश करती है। बादलों के प्राप्ति स्थान के आधार पर इसकी दो शाखाएँ होती हैं।
यह मानसून अरब सागर से प्रारम्भ होकर भारत के पश्चिमी घाट से टकराकर पश्चिमी तट पर मूसलाधार वर्षा करता है, जिसे मानसून का प्रस्फुटन कहते हैं । इस शाखा से सर्वप्रथम प्रत्येक वर्ष 1-5 जून के मध्य त्रिवेन्द्रम' (केरल के मालाबार तट) से अरब सागर के बादल भारत में सर्वप्रथम प्रवेश करते हैं और मानसून की यही शाखा यहीं पर सर्वप्रथम वर्षा करती है। यहाँ से उत्तर में जाने पर मानसून प्रवेश की तिथि बढ़ती है जबकि वर्षा की मात्रा घटती जाती है।
पश्चिमी घाट को पार करने के बाद ये पवनें नीचे उतरती हैं और गरम होने लगती है, जिससे इन पवनों को आर्द्रता में कमी आ जाती है तथा इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी घाट के पूर्व में इन पवनों से नाममात्र की वर्षा होती है। कम वर्षा का यह क्षेत्र वृष्टि छाया क्षेत्र कहलाता है तथा इस कारण ही महाराष्ट्र के विदर्भ और तेलंगाना में प्रतिवर्ष सूखा और अकाल पड़ता है तथा सैकड़ों किसान यहाँ आत्महत्याएँ करते हैं।
अरब सागर से उठने वाली इस मानसून की दूसरी शाखा मुम्बई के उत्तर में नर्मदा और ताप्ती नदियों की घाटियों से होकर मध्य भारत में दूर तक वर्षा करती है, तो वहीं छोटा नागपुर पठार में इस शाखा से 15 सेमी वर्षा होती है तथा यहाँ यह गंगा के मैदान में प्रवेश कर जाती है और बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है।
इस मानसून की तीसरी शाखा सौराष्ट्र प्रायद्वीप और कच्छ से टकराती है तथा वहाँ से यह अरावली के साथ-साथ पश्चिमी राजस्थान को लांघती है और बहुत ही कम वर्षा करती है, तो वहीं पंजाब और हरियाणा में यह बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है तथा ये दोनों शाखाएँ मिलकर पश्चिमी हिमालय विशेष रूप से धर्मशाला में वर्षा करती हैं।
2. बंगाल की खाड़ी का मानसून-
बंगाल की खाड़ी से आर्द्रता प्राप्त कर ये पवनें दो शाखाओं में विभक्त होती है इसकी एक शाखा पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में वर्षा करती है एवं समुद्र से दूरी बढ़ने के साथ वर्षा की मात्रा कम हो जाती है। मेघालय में गारो, खासो एवं जयंतिया कीपाकार पहाड़ियाँ है, जो समुद्र की ओर खुली हुई है। अतः यहाँ बंगाल की खाड़ी से आने वाला मानसून कीपाकार पहाड़ियों से टकराकर अत्यधिक वर्षा करता है लेकिन जम्मू-कश्मीर का लेह नामक स्थान हिमाद्रि पर्वत की वृष्टिछाया क्षेत्र में होने के कारण भारत में न्यूनतम वर्षा प्राप्त करता है। भारत के पूर्वी तट तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश में ग्रीष्म कालीन मानसून से वर्षा नहीं होती क्योंकि बंगाल की खाड़ी के मानसून की शाखा की यहाँ आता खत्म हो जाती है।
-: ये भी जानें :-
'मासिनराम' (मेघालय) संसार में सर्वाधिक वार्षिक वर्षा (1140 सेमी.) वर्षा वाला स्थान है, जबकि भारत में न्यूनतम वर्षा प्राप्त करने वाला स्थान 'लेह' (5 सेमी, लद्दाख) है।
मानसूनों द्वारा लाई गई कुल आर्द्रता का भारत में 65% अरब सागर से तथा 35% बंगाल की खाड़ी से प्राप्त होता है।
- उत्तरी-पूर्वी मानसून से सर्वाधिक वर्षा प्राप्त करने वाला राज्य तमिलनाडु है।
भारत के अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह ( 25 मई ) में सबसे पहले मानसून प्रवेश करता है।
1 जून को चैन्नई एवं तिरुअन्नतपुरम पहुँचता है।
5 से 10 जून के बीच कोलकाता व मुम्बई को छूता है।
10 से 15 जून के बीच पटना, अहमदाबाद, नागपुर में व 15 जून के बाद लखनऊ, दिल्ली, जयपुर जैसे शहरों में पहुँचता है।
भारत की 80 प्रतिशत से अधिक वर्षा जून से लेकर सितम्बर तक के चार महीनों में ही हो जाती है।
शरद ऋतु (15 सितम्बर से 15 नवम्बर तक)
वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु को मानसून का प्रत्यावर्तन काल या लौटते हुए मानसून का काल कहा जाता है, क्योंकि इस ऋतु में दक्षिण पश्चिमी मानसून के अचानक विवर्तन (लौटना) से इस ऋतु में बदलाव होता है। लौटते मानसून के समय आर्द्र पवनें स्थल से समुद्र की ओर बहती है। शरद ऋतु में है। सूर्य दक्षिण गोलार्द्ध में सीधा चमकता है अतः तिब्बत के पठार पर उच्च वायुदाब का केन्द्र एवं हिन्द महासागर में निम्न वायुदाब का केन्द्र बन जाता है और पवनें पठार से महासागर की ओर उत्तर पूर्व दिशा से चलना प्रारम्भ कर देती हैं, इसी कारण इसे 'उत्तरी-पूर्वी मानसून' भी कहते हैं, जिनसे तमिलनाडु के कोरोमण्डल तट एवं श्रीलंका के तटीय भागों में पर्याप्त वर्षा होती है। मानसून नवम्बर तक भारत को छोड़ देता है, जिसके कारण आकाश स्वच्छ हो जाता है और तापमान में बढ़ोतरी होने लगती है।
ध्यातव्य रहे-दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट (पेरू तट) पर चलने वाली गर्म जल की धारा एल-नीनो के प्रभावी होने पर भारत का मानसून कमजोर रह जाता है जबकि इसी तट पर ठण्डे जल की धारा ला-नीनो प्रभावी होने पर भारत में मानसून प्रबल हो जाता है। भारत में शीतकालीन वर्षा भू-मध्य सागर से उत्पन्न होने वाले चक्रवातों का परिणाम है।
भारत में वर्षा का अनुपात
- पश्चिमी विक्षोभ-लगभग 3 प्रतिशत
- मानसून पूर्व स्थानीय चक्रवाती वर्षा-लगभग 10 प्रतिशत
- दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी वर्षा-लगभग 74 प्रतिशत
- प्रत्यावर्तित मानसूनी वर्षा-लगभग 13 प्रतिशत
भारतीय मानसून के उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत
मानसून की उत्पत्ति से संबंधित अनेक सिद्धांत दिये गए हैं, जिनमें कुछ प्रमुख सिद्धांतों का विवरण निम्नलिखित है-
1. तापीय सिद्धांत अथवा चिरसम्मत विचारधारा -
इस सिद्धांत को 'एडमंड हैली' ने सन् 1686 में 'एशियाई मानसून की उत्पत्ति की व्याख्या' हेतु प्रतिपादित किया था। इस सिद्धांत के अनुसार 'मानसून', महाद्वीपों एवं महासागरों के उष्मण में अंतर के कारण इनमें उत्पन्न तापीय विरोधाभास का परिणाम है। ग्रीष्मकाल में सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंबवत् पडती है. जिसके कारण यहाँ निम्न वायुदाब केन्द्र का विकास हो जाता है तथा तापीय विषुवत रेखा का उत्तर की ओर खिसकाव हो जाता है। इसके कारण दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें, निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर खिंची चली आती है और जब वे हवाएँ भूमध्य रेखा को पार करती है तो 'कोरियोलिस बल' के प्रभाव के कारण दाहिनी ओर मुड जाती है, जहाँ इनकी दिशा 'दक्षिण-पश्चिम' हो जाती है। चूँकि ये पवनें समुद्र में लंबी दूरी तय करके आती है, अतः अपने साथ आर्द्रता भी पर्याप्त मात्रा में लाती है, जिसके कारण ही इसके द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा होती है। इसे ही 'दक्षिण-पश्चिम मानसूनी वर्षा के नाम से जाना जाता है। स्थल से आने के कारण इन हवाओं में आर्द्रता की कमी होती है, जिसके कारण वर्षा का अभाव पाया जाता है। लेकिन कोरियोलिस बल के कारण जब ये हवाएँ अपने दाहिनी = ओर मुड़कर बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है तो वहाँ से आर्दंता ग्रहण कर लेती है और उनकी दिशा उत्तर-पूर्व' हो जाती है, जिसके कारण तमिलनाडु के तट (कोरोमंडल तट) पर वर्षा होती है। इसे 'उत्तर-पूर्वी मानसूनी वर्षा' कहते हैं।
2. गतिक संकल्पना या विषुवतीय पछुआ पवन सिद्धांत
इस सिद्धांत का प्रतिपादन 'फ्लोन' ने किया। इनके अनुसार, मानसून 'पछुआ पवनों' का सूर्य उत्तरायण एवं दक्षिणायन के अनुसार सामान्य मौसमी स्थानांतरण है।
इसके अनुसार, ग्रीष्म ऋतु में तापीय विषुवत रेखा के उत्तर की ओर खिसकाव के कारण 'अंतः उष्ण अभिसरण क्षेत्र' का भी उत्तर की ओर खिसकाव होता है । फलतः पछुआ पवनों का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप पर बने निम्नदाब क्षेत्रों की ओर होने लगता है और अंतत: दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है।
शीत ऋतु में सूर्य के दक्षिणायन होने पर निम्न वायुदाब क्षेत्र उच्च वायुदाब में बदल जाता है। फलत: उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवने पुनः प्रभावी रूप से गतिशील हो जाती है।
3. जेट स्ट्रीम सिद्धांत
इसका प्रतिपादन एम. टी. यीन ने किया था- यह ऊपरी वायुमंडल में अति तीव्र गति से चलने वाली वायु-प्रवाह प्रणाली है, जो निम्न वायुमंडल के मौसम को भी प्रभावित करती है। इस सिद्धांत के अनुसार, 'उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम के द्वारा भारत में दक्षिण पश्चिम मानसून' की उत्पत्ति होती है तथा 'उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम' के द्वारा 'उत्तर-पूर्वी मानसून' (शीतकालीन मानसून) की उत्पत्ति में मदद मिलती है। शीतकाल में पूरे पश्चिमी तथा मध्य एशिया में उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम, पश्चिम से पूर्व दिशा में प्रवाहित होती रहती है और जब यह तिब्बत के पठार में पहुँचती है, तो अवरोध के कारण दो शाखाओं में बँट जाती है। एक शाखा तिब्बत के पठार के उत्तर से पठार के समानांतर बहने लगता है तथा दूसरी शाखा हिमालय के दक्षिण में पूर्व की ओर चली जाती है जो शीत ऋतु में भारतीय उपमहाद्वीप पर 'पश्चिमी विक्षोभ' लाती है। गर्मी में (सूर्य के उत्तरायण के समय) सभी ताप कटिबंधों का उत्तर की ओर विस्थापन हो जाता है, जिसके कारण उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम' का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है।
4. पूर्वी जेट प्रवाह सिद्धांत
उच्च वायुदाब के केन्द्र से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से होते हुए दक्षिणी हिन्द महासागर की ओर चलने वाली हवा को ही । उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम' कहते हैं।
5. एल-नीनो और भारतीय मानसून
एल-नीनो एक जटिल मौसम तंत्र है, जो हर पाँच या दस साल बाद प्रकट होता रहता है। इसके कारण संसार के विभिन्न भागों में सूखा, बाढ़ और मौसम की चरम अवस्थाएँ आती है।
एल-नीनो का शाब्दिक अर्थ 'बालक ईसा' है, क्योंकि यह जलधारा दिसम्बर के महीने में क्रिसमस के आस-पास नजर आती है। पेरू (दक्षिणी गोलार्द्ध) में दिसम्बर गर्मी का महीना होता है।
भारत में मानसून की लंबी अवधि के पूर्वानुमान के लिये एल नीनो का उपयोग होता है । सन् 1990-91 में एल नीनो का प्रचंड रूप देखने को मिला था। इसके कारण देश के अधिकतर भागों में मानसून के आगमन में 5 से 12 दिनों की देरी हो गई थी।
इस तंत्र में महासागरीय और वायुमंडलीय परिघटनाएँ शामिल होती है। पूर्वी प्रशांत महासागर में, यह पेरू के तट के निकट उष्ण समुद्री धारा के रूप में प्रकट होता है। इससे भारत सहित अनेक स्थानों का मौसम प्रभावित होता है। एल-नीनो भूमध्य रेखीय उष्ण समुद्री धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थायी रूप से ठंडी पेरूवियन अथवा हम्बोल्ट धारा पर प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू तट के जल का तापमान 10° सेल्सियस तक बढ़ा देती है। इससे दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट एवं मध्य अमेरिका में भयंकर वर्षा होती है। एलनिनो के प्रभाव से दक्षिणी अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया के मध्य निम्न वायुदाब का केन्द्र विकसित हो जाता है, इससे द्वितीय वाकर का निर्माण नहीं हो पाता है और हिन्द महासागर की मानसूनी हवाओं ( द. पू. व्यापारिक पवनों) को धकेलने वाला बल कमजोर हो जाता है, परिणामस्वरूप भारतीय मानसून कमजोर हो जाता है।
ला नीनो-
द्वितीय वाकर चक्र के प्रभावशाली होने की वजह से पेरू की ठण्डी जलधारा अत्यधिक शीतल होने के कारण उच्च वायुदाब का केन्द्र विकसित हो जाता है, जिससे प्रशांत महासागर से हवायें तीव्र गति से हिन्द महासागर की ओर प्रवाहित होती है और मानसूनी हवाओं को तेजी से भारत में धकेलती है और वर्षा होती है। मानसून अच्छा रहता है।
मानसून विच्छेद-
मानसून अवधि के दौरान लगातार वर्षा होने के बाद कुछ सप्ताह के लिए वर्षा रूक जाती है, तो ऐसी स्थिति को मानसून विच्छेद' की संज्ञा दी जाती है।
मानसून निवर्तन-अक्टूबर एवं नवम्बर में मानसून के पीछे हटने या लौटने को सामान्यतः 'मानसून का निवर्तन' कहा जाता है।
भारत में वर्षा का वितरण
भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 125 सेमी. होती है, परन्तु इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती है। भारत के विभिन्न भागों में वर्षा की मात्रा में विषमता पाई जाती है, जैसे-मासिनराम में 1300 सेमी. तथा थार-मरूस्थल के जैसलमेर में केवल 5 सेमी. वर्षा का औसत है।
वर्षा के सामान्य वितरण के आधार पर हम भारत को चार वृहत् भागों में बांट सकते हैं-
1. अधिक वर्षा वाले क्षेत्र-
इसके अंतर्गत 200 सेमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र आते हैं। पश्चिमी तटीय मैदान, पश्चिमी घाट के पश्चिमी / पवनोन्मुखी ढाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पूर्वी बिहार व झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल का उत्तरी भाग, असोम, मेघालय आदि ऐसे ही क्षेत्र है।
2.साधारण वर्षा वाले क्षेत्र -
इस वर्ग में वे क्षेत्र सम्मिलित है, जिनमें वर्षा 100 सेमी. से 200 सेमी. तक होती है। इसके अंतर्गत पश्चिमी घाट के पूर्वी भाग, पश्चिमी बंगाल के दक्षिणी पश्चिमी भाग, ओड़िशा, बिहार के आंतरिक भाग, छत्तीसगढ़, दक्षिणी-पूर्वी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की संकीर्ण पेटी शामिल है। इन्हें मध्यम वर्षा वाले क्षेत्र भी कहते हैं।
3.न्यून वर्षा वाले क्षेत्र-
इस वर्ग में वे क्षेत्र शामिल है, जहाँ वर्षा का औसत 50 से 100 सेमी. के बीच रहता है मध्य प्रदेश उत्तरी- पश्चिमी आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, हरियाणा और दक्षिणी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसमें सम्मिलित है। इस क्षेत्र में वर्षा की अनिश्चितता अधिक रहती हैं।
4.अपर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र-
इसमें 50 सेमी. से कम वर्षा वाले भाग शामिल है। इस वर्ग में पश्चिमी राजस्थान, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु का रायल सीमा क्षेत्र, कच्छ व लद्दाख आदि क्षेत्र सम्मिलित है।
भारतीय वर्षा की विशेषताएँ
1. भारत की कुल वर्षा का 90 प्रतिशत भाग ग्रीष्म ऋतु में दक्षिणी पश्चिमी मानसून प्राप्त होता है।
2. कालिक दृष्टि से मानसूनी वर्षा अनिश्चित होती है। यह वर्षा कभी जल्दी, तो कभी देर से प्रारम्भ होती है, कभी जल्दी प्रारम्भ होकर जल्दी समाप्त हो जाती है, तो कभी देर तक चलती रहती है।
3. वर्षा का क्षेत्रीय वितरण अत्यंत असमान है।
4. यह वर्षा लगातार नहीं होती, वरन् कुछ दिनों के अंतर से रूक रूक कर हुआ करती है। कभी-कभी यह अन्तराल अधिक हो जाता है, जिससे फसलें सूख जाती है।
5. कुछ भागों में वर्षा मूसलाधार होती है और कुछ में बौछारों के रूप में होती है। जब वर्षा तेज होती है, तो वर्षा का जल मिट्टी का अपरदन कर उसे कृषि के अयोग्य बना देता है।
6. शीत ऋतु प्रायः शुष्क होती है। देश की 10 प्रतिशत वर्षा शरदकालीन मानसून तथा चक्रवातों से प्राप्त होती है।
7. भारत में वर्षा के दिनों की संख्या बहुत कम है, जैसे-कोलकाता में 118 दिन, चैन्नई में 55 दिन, मुम्बई में 75 दिन आदि । अतः सिंचाई की आवश्यकता होती है।
8. वर्षा में अनियमितता बहुत है। राजस्थान के जिन भागों में वर्षा केवल 12 सेमी. होती है, वहाँ वर्षा की अनियमितता 30 प्रतिशत होती है, परन्तु कानपुर में 20 प्रतिशत तथा कोलकाता में 11 प्रतिशत अनियमितता है।
जलवायु प्रदेश
मौसम वैज्ञानिक ब्लादिमीर कोपेन के अनुसार भारत के तापमान व वर्षा के आधार भारत को 8 जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया गया है
1. Aw ( उष्ण कटिबंधीय सवाना तुल्य जलवायु प्रदेश ) -
इस जलवायु प्रदेश में लगभग भारत का सम्पूर्ण प्रायद्वीपीय पठारी भाग आता है, जहाँ उष्ण व आर्द्र जलवायु पाई जाती है एवं केवल गर्मी में ही वर्षा होती है।
2. Amw ( उष्ण कटिबंधीय मानसून तुल्य जलवायु प्रदेश ) -
इस जलवायु प्रदेश में पश्चिमी तटीय सीमा का कोंकण एवं मालाबार का तट का भाग आता है, जहाँ उष्ण, आर्द्र एवं मानसूनी जलवायु पाई जाती है एवं भारत में मानसून यहीं से शुरू होता है और यहाँ केवल गर्मी में ही वर्षा होती है।
3. As' ( उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु प्रदेश)-
इस जलवायु प्रदेश में पूर्वी तटीय सीमा का कोरोमण्डल का तटीय भाग आता है, जहाँ उष्ण एवं आर्द्र जलवायु पाई जाती है एवं यहाँ गर्मी में भी वर्षा नहीं होती है।
4. BShw (अर्द्ध शुष्क स्टेपी तुल्य जलवायु प्रदेश)-
इस. जलवायु प्रदेश में भारत के रेतीले मैदान से सहलग्न अर्द्धचन्द्राकार आकृति का वह क्षेत्र जिसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पूर्वी उत्तरप्रदेश, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, उत्तरी-पूर्वी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र का | विदर्भ और तेलंगाना का भाग आता है अर्थात् शुष्क मरुस्थल प्रदेश या सूखा क्षेत्र होता है, जहाँ उष्ण एवं शुष्क जलवायु पाई जाती है एवं यहाँ वर्षभर गर्म हवायें चलती है।
5. BWhw ( उष्ण मरुस्थलीय जलवायु प्रदेश )-
इस जलवायु प्रदेश में पश्चिमी राजस्थान का पश्चिमी रेतीला थार का शुष्क मरुस्थलीय भाग आता है, जहाँ उष्ण एवं शुष्क जलवायु पाई जाती है एवं यहाँ वर्षभर गर्म हवायें चलती है और यहाँ केवल ग्रीष्म काल में ही वर्षा होती है।
6. Cwg (मध्य तापीय / गंगा तुल्य जलवायु प्रदेश)-
इस जलवायु प्रदेश में गंगा के मैदान सहित उत्तर का विशाल मैदानी भाग आता है, जहाँ उष्ण एवं शीत (समशीतोष्ण) जलवायु पाई जाती है एवं यहाँ वर्षा से पहले भयंकर गर्मी पड़ती है और यहाँ केवल गर्मी में ही वर्षा होती है।
7.Dfs (शीतल आर्द्र जाड़े का जलवायु प्रदेश)-
इस जलवायु प्रदेश में मेघालय और असम सहित उत्तरी- पूर्वी भारत का भाग आता है, जहाँ शीत एवं आर्द जलवायु पाई जाती है एवं यहाँ सर्वाधिक वर्षा होती है लेकिन गर्मियों में कम वर्षा होती है।
8. E ( ध्रुवीय या पर्वतीय जलवायु प्रदेश )-
इस जलवायु प्रदेश में हिमाद्रि पर्वतीय क्षेत्र के अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड का भाग आता है, जहाँ शीत एवं शुष्क जलवायु पाई जाती है।
Bhart ki Jalvayu FAQ
Q 1 - जलवायु प्रदेश क्या होता है ?
Ans - वह क्षेत्र जिसमें समान जलवायु दशाएँ (तापमान एवं वर्षा) पाई जाती हैं, जलवायु प्रदेश कहा जाता है। अत: एक जलवायु प्रदेश में जलवायु दशाओं की समरूपता होती है तो वास्तव में जलवायु कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है।
Q 2 - जलवायु में महाद्वीपीय अवस्था का क्या अर्थ है?
Ans - महाद्वीपीय जलवायु ( Continental climate) वह जलवायु है, जिसमें वर्ष में तापमान में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव वाला होता है। इस प्रकार के क्षेत्रों के आसपास जलराशि के बड़े भण्डारों की कमी के कारण तापमान में अंतर आता रहता है, जो कि सामान्य घटना है।
Q 3 - मानसूनी जलवायु क्या है?
Ans - एक विशिष्ट प्रकार की जलवायु जिसमें स्पष्ट ग्रीष्म एवं शीत ऋतुएं पायी जाती हैं और ऋत्विक परिवर्तन के अनुसार जलवायु दशाओं-तापमान, वायुदाब, हवाओं की दिशा, वर्षा आदि में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। इन क्षेत्रों को मानसूनी प्रदेश कहते हैं।
Q 4 - उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु क्या है?
Ans - उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु प्रदेशों में भारी मात्रा में वर्षा होती है, साथ ही शुष्क ऋतु भी होती है। औसत वार्षिक वर्षा सामान्यत: 200-250 सेंटीमीटर तक होती है, वहीं कुछ क्षेत्रों में 350 सेंटीमीटर तक होती है।
Q 5 - भारत में मानसून प्रकार की जलवायु क्यों है?
Ans - भारत में मानसूनी प्रकार की जलवायु इसलिए है क्योंकि भारत में मानसूनी जलवायु में परिवर्तन के साथ पवनों की दिशा उलट जाती है। अधिकतर वर्षा ग्रीष्म ऋतु में होती है। भारत में इसी प्रकार की जलवायु दशाएं पाई जाती हैं अर्थात भारत की जलवायु पूर्ण रूप से मानसून से जुड़ी हुई है।
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