bhilo ka lok nritya भीलों के नृत्य
भीलों के नृत्य |
गैर नृत्य
- गैर नृत्य मुख्यतः फाल्गुन मास में भील पुरुषो के द्वारा किया जाता है ।
- गोल घेरे की आकृति में होने के कारण इस नृत्य का नाम घेर पडा । जो आगे चलकर गैर कहलाया ।
- गैर नृत्य करने वाले नृत्यकार गैरिये कहलाते हैं । मेवाड व बाडमेर क्षेत्र में गैर नृत्य किया जाता है ।
- यह नृत्य होली के अवसर पर किया जाता है । इस नृत्य को गैर/घेर/गेहर आदि नामों से भी पुकारते है ।
- पुरुष लकड़ी की छडी लेकर गोल घेरे में नृत्य करते है । गैर नृत्य के प्रमुख वाद्य यंत्र दोल बाकिया थाली है ।
- गैर नृत्य करते समय कहीं-कहीं श्रृंगार रस एवं भक्ति रस के गीत गाए जाते है ।
- गैर के प्रत्युत्तर में गाये जाने वाले श्रृंगार रस एवं भक्ति रस के गीत फाग कहलाते है । गैर नृत्य में प्रयुक्त होने वाली छड को खाडा कहा जाता है ।
- मेवाड तथा बाडमेर में मूल रूप से नृत्य समान है परन्तु नृत्य की चाल व माण्डक बनाने की कला भिन्न है ।
- इसके परिधान सफेद अंगरखी व सफेद धोती आदि है ।
- मेवाड में लाल/कैसरिया पगडी पहनी जाती है ।
- बाडमेर में सफेद आंगी (लम्बा फ्राक) कमर पर चमडे का पट्टा व तलवार आदि लेकर नृत्य किया जाता है ।
- गैर नृत्य की प्रमुख विशेषता विचित्र वेशभूषा का प्रदर्शन है ।
- भीलवाड़ा का घूमर गैर अत्यन्त प्रसिद्ध है ।
- मेणार/मेनार गाँव (उदयपुर) के ऊंकारेश्वर चौराहे पर चैत्रबदी (कृष्ण ) बीज (दूज ) /जमरा बीज को तलवारों की गैर खेली जाती है ।
- नाथद्वारा (राजसमंद) में शीतला सप्तमी (चैत्र कृष्ण सप्तमी) से एक माह तक गैर नृत्य का आयोजन होता है ।
गवरी या राई नृत्य
- गवरी या राई एक नृत्य नाटक है
- यह राज्य की सबसे प्राचीन लोक नाटक कला है । जिसे लोकनाट्यों का मेरूनट्य भी कहा जाता है
- इस नृत्य नाटक के प्रमुख पात्र भगवान शिव होते है ।
- शिव की अर्धांगिनी गौरी (पार्वती) के नाम के कारण ही इस नृत्य का नाम गवरी पड़ा ।
- गवरी नृत्य में शिव को पुरिया कहा जाता है ।
- नृत्याकार त्रिशूल के चारो तरफ इकट्ठे हो जाते है जो मांदल व थाली की ताल पर नृत्य करते है । कुटकुडिया इस नाट्य का सूत्रधार होता है ।
- गवरी लोकनाट्य का मुख्य आधार शिव तथा भस्मासुर की कथा है ।
- गवरी लोक नाट्य का राखी के बाद से इसका प्रदर्शन सवा माह ( 40 ) दिन चलता है ।
- इस नाट्य में शिव भरमांसुर का प्रतीक राई बुढिया होती है ।
- गवरी नाटक दिन में प्रदर्शितं किया जाता है ।
- गवरी नाटक के दौरान 12 नाटिकाएँ प्रस्तुत की जाती है, जो गवरी की घाई कहलाती है । जैसे कालुकी शेर-सुअर लड़ाई, भीयांवड आदि
- इस में मादल वाद्ययंत्र का प्रयोग होता है ।
- दोनों पार्वतियों की प्रतिमूर्ति (मोहिनी तथा असली पार्वती) दोनों राइयाँ कुटकुडिया तथा पाट भोपा ये पाँचों गवरी के मुख्य पात्र होते है । अन्य पात्र खेल्ये कहलाते है ।
- इस नृत्य नाट्य के विभिन्न कथानक या सहकथानक क्रमबद्ध नहीं होते परन्तु गवरी की घाई नृत्य द्वारा मूल कथानक से जुडे रहते है ।
- गवरी नृत्य भील पुरुषों के द्वारा उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा में किया जाता है ।
- झामत्या पात्र लोकभाषा में कविता को बोलता है तथा ख़टकड़िया उसको दोहराता है । ये पात्र इसके प्रमुख कलाकार हैं ।
- इस नृत्य नाट्य की प्रमुख विशेषता यह है कि इसे भीलों के अलावा कोई नहीं खेल सकता तथा इसमें महिलाओँ की भूमिका पुरुषों के द्वारा निभाई जाती है ।
- गवरी के दिनों में स्त्री-गमन-माँस मदिरा एवं हरी सब्जी सेवन पर गवरी पात्रो के लिए पूर्णत: प्रतिबंध होता है ।
- गवरी नाट्य कला सांस्कृतिक , परम्परागत , अभिनय तीनों में समृद्ध लोककला है
- गौरी (पार्वती) भीलों की प्रमुख आराध्य देवी है ।
- गवरी नाट्य कला भीलों के जन्म-मरण और पुनर्जन्म आस्था की प्रतीक भी मानी जाती है ।
- नेशनल स्कूल आँफ ड्रामा की शिष्य दीक्षित भानू भारती ने इस नाट्य कला को भारतीय गायकी नामक नाम दिया ।
- गवरी नाट्य को वर्तमान में शिक्षा व विकास कार्यक्रमों से जोड दिया गया ।
- गवरी का प्रमुख प्रसंग देवी अमुड़ वास्या की सवारी है । गोरी का खेल खेत को बोने व काटने के बीच में खेला जाता है ।
- इस नृत्य में सर्वप्रथम राई बुडिया (शिव) को नृत्य स्थल पर लाया जाता है ।
- शिव की त्रिशूल को जमीन में गाड दिया जाता है फिर त्रिशूल के चारों और आठ-नौ कलाकार मुखौटा हाथों में तीर, धनुष , तलवार, बर्छी आदि धारण कर यह नृत्य किया जाता है ।
द्विचक्की नृत्य
- विवाह के अवसर पर महिला-पुरुषों द्वारा दो वृत बनाकर यह नृत्य किया जाता है ।
- इस नृत्य मे बाहरी वृत पुरुष बाएँ से दाहिनी ओर तथा अन्दर के वृत में महिलाएं दाएं से बाएँ और नृत्य करती हुई चलती हैं ।
- द्विचक्की नृत्य में दो चक्र पूरे होने के कारण ही इसे द्विचक्की कहते है ।
- इस नृत्य के दौरान ऊँची हुंकारे भरते है तथा ऊंची आवाज में फाइरे-फाइरे रणघोष कहकर मांदल बजाते है । यह नृत्य बेहद भयानक होता है ।
- द्विचक्की नृत्य में बहुत से नर्तक घायल भी हो जाते है । इसी कारण राज्य सरकार ने इस नृत्य पर प्रतिबंध लगा रखा है ।
घूमरा नृत्य
- महिलाओं द्वारा ढोल व थाली वाद्य के साथ अर्द्धवृत बनाकर घूम-घूम कर किया जाने वाला नृत्य है ।
- घूमरा नृत्य में दो दल होते है एक दल गाता है तथ दूसरा उसकी पुनरावृति करता है ।
- यह नृत्य उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा में किया जाता है ।
- घूमरा नृत्य हाथ में रूमाल या अन्य कपडा लेकर किया जाता है ।
- घूमरा नृत्य गुजरात के गरबा नृत्य से काफी मिलता-जुलता है ।
नेजा मृत्य
- इस नृत्य को भील व मीणा जाति के लोग मिलकर करते हैं ।
- यह भीलों का एक खेल नृत्य है ।
- होली के तीसरे दिन खम्भे को भूमि में रोपकर उसके उपरी सिरे पर नारियल रखकर इस नृत्य को किया जाता है ।
- खम्बे से नारियल उतारने वाले पुरुष को घेरकर खड़ी स्त्रियाँ छडियों व कोडों से पीटती है ।
- इस नृत्य के अवसर पर ढोल पर पगाल्या लेना नामक थाप दी जाती है।
- नेजा नृत्य मेवाड क्षेत्र में किया जाता है ।
गौरी नृत्य
- यह नृत्य मुख्य रूप से पार्वती पूजा से सम्बन्धित नृत्य है ।
- इस नृत्य को खेत में फसल बोने व काटने के मध्य अपनी पत्नी के साथ किया जाता है ।
- यह भाद्रपद पूर्णिमा के एक दिन पहले किया जाता है ।
- इस नृत्य नाटक में माता पार्वती के पीहर गमन आदि की घटनाएं जुडी हुई है ।
सुकर का मुखौटा नृत्य
- भील जनजाति द्वारा किया जाने वाला सुकर का मुखौटा नृत्य, नृत्य में तीर धनुष से लैस एक शिकारी स्थल पर आता है और वह शिकारी वहाँ पर बैठे सुकर मुखौटा धारी आदिवासी युवक को मार गिराने का अभिनय करता है ।
- यह एक नृत्य नाटक है जो सिर्फ राजस्थान में किया जाता है ।
रमणी नृत्य
- भील जनजाति में रमणी नृत्य विवाह मंडप के सामने विवाह के अवसर पर किया जाता है ।
- पुरुष साफे की चमकीले पट (पट्टी) से सजाकर बाँसूरी एवं मांदल वाद्य यंत्रों का वादन करते है ।
पालीनोच नृत्य
- भीलों में विवाह के अवसर पर किए जाने वाले स्त्री - पुरुषों के 'सामूहिक युगल नृत्य को पालीनोच नृत्य कहा जाता है ।
गोसाईं नृत्य
- जोगणिया माता को समर्पित होली के अवसर पर भील पुरुषों के द्वारा किया जाने वाला नृत्य गोसाई नृत्य कहलाता है ।
हाथीमना नृत्य
- भीलों द्वारा विवाह के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य हाथीमना है।
- यह घुटनों के बल बैठकर किया जाने वाला नृत्य है ।
बेरीहाल नृत्य
- उदयपुर के खैरवाड़ा के पास भाण्दा गाँव में रंग पंचमी को विशाल आदिवासी मेले का मुख्य आकर्षण बेरीहाल नृत्य है ।
साद नृत्य
- भीलों में आध्यात्मिक एवं धार्मिक समय पर किए जाने वाले नृत्य को साद नृत्य कहा जाता है ।
युद्ध नृत्य
- युद्ध नृत्य भीलों द्वारा सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों में हथियार के साथ किया जाने वाला तालबद्ध नृत्य है ।
लाठी नृत्य
- लाठी नृत्य भीलों का पुरुष प्रधान नृत्य है ।
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1 Comments
Thanks for the great article
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